COP30 Brazil Outcome 2025: Full Analysis of Belém Climate Deal, Fossil Fuel Silence & New Climate Finance Commitments
ब्राज़ील का COP30 जलवायु शिखर सम्मेलन: सीमित महत्वाकांक्षा के बीच वैश्विक एकजुटता की खोज
परिचय
नवंबर 2025 में ब्राज़ील के बेलें शहर में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP30) ने वैश्विक जलवायु कूटनीति को एक ऐसा अध्याय प्रदान किया, जो आशा और निराशा दोनों का मिश्रण था। अमेज़न के जैव-विविध हृदयस्थल में पहली बार आयोजित यह सम्मेलन न केवल प्रतीकात्मक दृष्टि से, बल्कि राजनीतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा था। ब्राज़ील ने इसे ऐसे मंच के रूप में प्रस्तुत किया था जहाँ जीवाश्म ईंधन निर्भरता से वैश्विक संक्रमण, वनों की रक्षा, और जलवायु न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाए जाने की उम्मीद थी।
लेकिन सम्मेलन का अंतिम परिणाम एक ऐसे समझौते के रूप में सामने आया जिसमें विकासशील देशों के लिए वित्तीय समर्थन को प्राथमिकता दी गई, जबकि जीवाश्म ईंधन के भविष्य पर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश न दिए जाने से व्यापक आलोचना हुई। विशेष रूप से, अमेरिकीय प्रतिनिधिमंडल की अनुपस्थिति ने इसे “पोस्ट-अमेरिकी जलवायु व्यवस्था” की दिशा में बढ़ते रूपांतरण का संकेत माना गया। इस लेख में COP30 के संदर्भ, इसके विवादों, निर्णयों और व्यापक प्रभावों का विश्लेषण प्रस्तुत है।
सम्मेलन का संदर्भ और उभरती जटिलताएँ
COP30 की मेजबानी अमेज़न क्षेत्र में करने का उद्देश्य था कि वैश्विक समुदाय पृथ्वी के सबसे संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र में जलवायु संकट के प्रत्यक्ष प्रभावों को महसूस कर सके। अपने उद्घाटन वक्तव्य में ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुईस इनासियो लूला दा सिल्वा ने जीवाश्म ईंधनों से चरणबद्ध हटने और वनों की कटाई समाप्त करने हेतु एक वैश्विक, बाध्यकारी रोडमैप की आवश्यकता को रेखांकित किया।
परंतु सम्मेलन के आरंभिक चरण में ही कई बाधाएँ सामने आईं। 20 नवंबर को स्थल पर लगी आग ने वार्ताओं को बाधित किया, तथा अगले दिन यूरोपीय संघ ने प्रारंभिक ड्राफ्ट यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वह उत्सर्जन कटौती जैसे मूलभूत मुद्दों पर पर्याप्त स्पष्टता नहीं देता।
इन विवादों ने तीन केंद्रीय प्रश्नों को अधिक तीव्रता से उभारा:
1. जीवाश्म ईंधन संक्रमण पर टालमटोल
80 से अधिक देशों ने जीवाश्म ईंधनों से संक्रमण के लिये एक औपचारिक वैश्विक मार्गदर्शिका की मांग की, परंतु तेल-उत्पादक राष्ट्रों—विशेषतः सऊदी अरब—की आपत्तियों के कारण अंतिम दस्तावेज़ में किसी स्पष्ट या बाध्यकारी भाषा को शामिल नहीं किया गया।
2. जलवायु वित्त की संरचना
अनुकूलन वित्त को 2035 तक तिगुना करने के प्रस्ताव ने उम्मीद तो जगाई, किंतु इसका स्रोत—सरकारी अनुदान, निजी निवेश या अंतरराष्ट्रीय विकास बैंक—निर्धारित न होने से इसकी व्यावहारिकता अधर में रह गई।
3. अमेज़न और आदिवासी समुदायों की स्थिति
वनों की सुरक्षा के लिए एक स्वैच्छिक रोडमैप जारी किया गया, परंतु बाध्यकारी नियमों की अनुपस्थिति के कारण आदिवासी समुदायों ने इसे प्रतीकात्मक बताया। अमेज़न संरक्षण को COP30 की केंद्रीय थीम बनाने के बावजूद वास्तविक नीति परिवर्तन नगण्य रहे।
अमेरिका की गैर-भागीदारी ने शक्ति संतुलन को पुनर्गठित कर दिया। इसने यद्यपि वैश्विक दक्षिण को अधिक सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर दिया, परंतु उत्सर्जन कटौती पर वैश्विक सामूहिक दबाव कमजोर हुआ।
समझौते के प्रमुख तत्व
22 नवंबर को रातभर चली गहन वार्ताओं के उपरांत COP30 के अध्यक्ष आंद्रे कोर्रेया दो लैगो ने अंतिम दस्तावेज़ को पारित घोषित किया। इसमें निम्नलिखित प्रमुख प्रावधान शामिल थे:
1. विकासशील देशों के लिए वित्तीय सहायता का सुदृढ़ीकरण
अनुकूलन तथा हानि-क्षति (Loss and Damage) से संबंधित वित्त को बढ़ाने पर सहमति बनी। 2030 तक अनुकूलन वित्त को तीन गुना करना उन देशों के लिए विशेष महत्व रखता है जो अत्यधिक मौसम घटनाओं और जलवायु-प्रेरित असुरक्षा से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
2. उत्सर्जन कटौती पर पुन: दबाव
देशों से 2026 तक अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (NDCs) को अधिक महत्वाकांक्षी बनाने का आग्रह किया गया। यह पेरिस समझौते के 1.5°C लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में आवश्यक कदम माना गया। हालांकि, जीवाश्म ईंधन चरणबद्ध समाप्ति के रोडमैप को एक अलग, गैर-बाध्यकारी दस्तावेज़ में स्थानांतरित कर दिया गया।
3. COP प्रक्रिया की भविष्य दिशा
तुर्की को COP31 की मेजबानी और ऑस्ट्रेलिया को अध्यक्षता सौंपी गई। ब्राज़ील ने यह भी संकेत दिया कि वह अपने “एक्शन एजेंडा” को और सुदृढ़ बनाएगा, जिसमें 117 विषयगत मुद्दों पर नवीन कार्य योजनाएँ शामिल हैं—जैसे सतत पोषण प्रणाली, प्रकृति-आधारित समाधान, तथा फॉसिल फ्यूल निष्कासन की रूपरेखा।
आलोचनाएँ और चुनौतियाँ
समझौते की सराहना इस दृष्टि से की गई कि यह एक कठिन भू-राजनीतिक परिदृश्य में भी सामूहिक कार्रवाई का संदेश देता है। फिर भी कई आलोचनाएँ रेखांकित की गईं:
1. फॉसिल फ्यूल्स के मुद्दे का अप्रस्तुत रहना
पनामा, कोलंबिया और जर्मनी सहित अनेक देशों ने जीवाश्म ईंधनों पर निर्णायक भाषा के अभाव को वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी बताया। उनका तर्क था कि जब तक वैश्विक समुदाय फॉसिल फ्यूल्स के भविष्य पर स्पष्ट रुख नहीं अपनाता, तब तक उत्सर्जन कटौती के किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन होगा।
2. बाध्यकारी प्रावधानों की कमी
समझौता मुख्यतः राजनीतिक प्रतिबद्धता पर आधारित रहा। कानूनी बाध्यता न होने के कारण यह जोखिम बना रहा कि उच्च-आय वाले देश वित्तीय या उत्सर्जन संबंधी अपने वादों को पूरा न करें।
3. “पोस्ट-अमेरिकी युग” का द्वंद्व
अमेरिका की अनुपस्थिति ने एक ओर वैश्विक दक्षिण के नेतृत्व को सशक्त किया, पर दूसरी ओर वैश्विक जलवायु नीति में दिशा-निर्धारक समन्वय कमजोर हुआ। इससे शक्ति-संतुलन अस्थिर हुआ और कुछ मामलों में वार्ताओं की महत्वाकांक्षा सीमित भी हुई।
कुल मिलाकर, इन आलोचनाओं ने इस चिंता को मजबूत किया कि COP प्रक्रिया में राजनीतिक इच्छाशक्ति वैज्ञानिक अनिवार्यता से पीछे रहती जा रही है।
निष्कर्ष: प्रगति और सीमाओं के बीच जूझता वैश्विक प्रयास
COP30 का अंतिम परिणाम जलवायु शासन में “असहज प्रगति” का सूचक है—एक ऐसा संतुलन जिसमें वैश्विक एकता बनी तो रही, परंतु वह जीवाश्म ईंधन संक्रमण जैसी निर्णायक प्रतिबद्धताओं के अभाव से कमजोर पड़ गई।
ब्राज़ील ने अमेज़न के महत्व को वैश्विक विमर्श में केन्द्र में रखा, किन्तु तेल-उत्पादक देशों के प्रतिरोध, अमेरिका की अनुपस्थिति और यूरोपीय संघ की प्रारंभिक अस्वीकृति ने सम्मेलन की महत्वाकांक्षा सीमित कर दी।
भविष्य में COP31 (तुर्की) और उसके पश्चात होने वाली बैठकों से यह निर्धारित होगा कि क्या वैश्विक समुदाय विज्ञान-आधारित, बाध्यकारी और न्यायसंगत जलवायु शासन प्रणाली की ओर वास्तव में बढ़ पाएगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो जलवायु न्याय और 1.5°C लक्ष्य दोनों ही संकल्प के बजाय कल्पना बनकर रह जाने का जोखिम उठाते हैं।
With Reuters Inputs
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