थाईलैंड और कंबोडिया का 2025 शांति समझौता: दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थिरता की नई सुबह
परिचय
दक्षिण-पूर्व एशिया की राजनीतिक संरचना लंबे समय से सीमा विवादों, औपनिवेशिक विरासतों और राष्ट्रवाद के टकरावों से जूझती रही है। ऐसे ही एक संवेदनशील विवाद का अंत 26 अक्टूबर 2025 को हुआ, जब कुआलालंपुर में आयोजित 47वें आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान थाईलैंड और कंबोडिया ने एक ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड जे. ट्रम्प की मध्यस्थता में संभव हुआ, जिसने न केवल हालिया सैन्य टकराव को समाप्त किया बल्कि क्षेत्र में सहयोग और स्थिरता के एक नए अध्याय की शुरुआत की। यह समझौता उस लंबे संघर्ष के समापन का प्रतीक है जिसने दशकों तक दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित किया था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: औपनिवेशिक सीमाओं की विरासत
थाईलैंड और कंबोडिया के बीच सीमा विवाद की जड़ें 19वीं सदी में निहित हैं, जब फ्रांसीसी औपनिवेशिक शासन ने सीमांकन की रेखाएँ खींचीं। ये रेखाएँ स्थानीय भौगोलिक वास्तविकताओं की तुलना में औपनिवेशिक हितों पर आधारित थीं।
विवाद का केंद्र बिंदु रहा प्रीह विहार मंदिर परिसर (Preah Vihear Temple Complex), जो डांग्रेक पर्वतों की ऊँचाइयों पर स्थित है। 1962 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने इस मंदिर को कंबोडिया के अधीन माना था, परंतु थाईलैंड आज भी इसे अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर मानता है।
पिछले दो दशकों में यह विवाद कई बार हिंसक झड़पों में बदल चुका है — विशेषकर 2008 और 2011 में — जब दोनों देशों की सेनाओं के बीच गोलीबारी हुई और सैकड़ों लोग विस्थापित हुए। इस विवाद ने न केवल सीमावर्ती इलाकों की सुरक्षा को प्रभावित किया बल्कि आसियान के भीतर क्षेत्रीय स्थिरता के सवाल को भी गहराया।
जुलाई 2025 का संघर्ष: तनाव से युद्धविराम तक
जुलाई 2025 में चोंग बोक क्षेत्र के पास हुई एक छोटी सी झड़प कुछ ही दिनों में एक व्यापक सीमा संघर्ष में बदल गई।
दोनों पक्षों ने भारी हथियारों का इस्तेमाल किया — थाई सेना ने ओटीओ मेलारा हॉवित्जर तोपें और कंबोडियाई सेना ने टाइप-81 रिकॉइललेस राइफलें तैनात कीं।
संघर्ष में लगभग 55 सैनिकों की मौत और कई नागरिकों के घायल होने की सूचना मिली। सीमा से सटे गाँवों में अफरा-तफरी मच गई और हजारों लोग अस्थायी रूप से विस्थापित हुए।
इस संघर्ष की जड़ें केवल क्षेत्रीय नहीं थीं।
थाईलैंड उस समय आर्थिक मंदी और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा था, जबकि कंबोडिया सीमा क्षेत्र में नई सड़क व औद्योगिक परियोजनाओं के माध्यम से अपनी उपस्थिति मजबूत कर रहा था।
इन सबने राष्ट्रवाद और सैन्य प्रतिष्ठा को बढ़ावा दिया, जिससे वार्ता की संभावना लगभग खत्म होती दिखी।
ऐसे में आसियान शिखर सम्मेलन एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरा जिसने संवाद की प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया।
कुआलालंपुर शांति समझौता 2025: प्रमुख प्रावधान
इस समझौते का औपचारिक नाम “कुआलालंपुर सीमा शांति और सहयोग ढांचा” (Kuala Lumpur Border Peace and Cooperation Framework) है।
यह केवल एक युद्धविराम नहीं, बल्कि सहयोग, पारदर्शिता और आर्थिक साझेदारी का एक दीर्घकालिक खाका है।
इसके मुख्य बिंदु निम्न हैं —
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असैन्यीकृत क्षेत्र (Demilitarized Zone)
- विवादित सीमा क्षेत्र के 10 किलोमीटर भीतर से भारी हथियारों की वापसी।
- इस क्षेत्र की निगरानी आसियान पर्यवेक्षक मिशन और संयुक्त सैन्य आयोग द्वारा की जाएगी।
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विश्वास निर्माण के उपाय (Confidence Building Measures)
- जुलाई संघर्ष में पकड़े गए सैनिकों की तत्काल रिहाई।
- सीमा पार व्यापार शुल्कों और निर्यात अवरोधों का निलंबन।
- प्रीह विहार मंदिर के आसपास एक संयुक्त पर्यटन गलियारा विकसित करने की सहमति।
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आर्थिक सहयोग और विकास पहल
- सीमा क्षेत्र में एक विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone) की स्थापना।
- सीमा पार रेल और सड़क संपर्क को पुनर्जीवित करने की योजना, जिससे दोनों देशों के बीच व्यापार 10 अरब डॉलर से आगे बढ़ सके।
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संयुक्त सीमा आयोग (Joint Border Commission)
- दोनों देशों के रक्षा और विदेश मंत्रालयों के प्रतिनिधियों का स्थायी मंच, जो सीमा प्रबंधन और विवाद समाधान की निगरानी करेगा।
अमेरिकी मध्यस्थता की भूमिका
इस समझौते की सबसे उल्लेखनीय विशेषता रही अमेरिका की सक्रिय मध्यस्थता।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, जो अपने दूसरे कार्यकाल में एशिया-प्रशांत नीति को पुनर्संतुलित करने का प्रयास कर रहे हैं, ने इस वार्ता में निर्णायक भूमिका निभाई।
ट्रम्प प्रशासन ने थाईलैंड (एक प्रमुख Non-NATO Ally) को दी जाने वाली रक्षा सहायता और कंबोडिया को दी जाने वाली आर्थिक सहायता दोनों का उपयोग राजनयिक दबाव और प्रोत्साहन के रूप में किया।
हस्ताक्षर समारोह के दौरान ट्रम्प ने कहा —
“यह केवल एक सीमा समझौता नहीं, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए शांति का खाका है।”
यह बयान संकेत देता है कि वाशिंगटन, चीन की बेल्ट एंड रोड पहल के समानांतर एक राजनयिक वैकल्पिक ढांचा तैयार कर रहा है, जिसमें क्षेत्रीय विवादों को अमेरिकी सॉफ्ट पावर के माध्यम से संतुलित किया जा सके।
क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभाव
इस समझौते के निहितार्थ बहुआयामी हैं —
1. आसियान की विश्वसनीयता में वृद्धि
अब तक “गैर-हस्तक्षेप” नीति के कारण आसियान को कई बार दर्शक संगठन कहा गया था।
लेकिन इस समझौते ने दिखाया कि आसियान सामूहिक कूटनीति के माध्यम से क्षेत्रीय विवादों में रचनात्मक भूमिका निभा सकता है।
यह अनुभव भविष्य में दक्षिण चीन सागर विवाद जैसे जटिल मुद्दों पर एक प्रोटोकॉल मॉडल बन सकता है।
2. आर्थिक एकीकरण की दिशा में कदम
सीमा स्थिरता से ग्रेटर मेकांग सब-रीजन (GMS) के भीतर रेल, ऊर्जा और व्यापार गलियारों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
इससे क्षेत्रीय उत्पादन श्रृंखलाएँ अधिक प्रतिस्पर्धी बनेंगी और ASEAN Economic Community (AEC) का विज़न साकार हो सकेगा।
3. अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता का नया अध्याय
ट्रम्प की भूमिका ने यह स्पष्ट किया कि अमेरिका दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए कूटनीतिक मंचों का भी उपयोग कर रहा है।
यह क्षेत्रीय देशों को रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने का अवसर देता है, लेकिन संतुलन बनाए रखना चुनौतीपूर्ण रहेगा।
आलोचनात्मक दृष्टि: समझौते की सीमाएँ
हालाँकि यह समझौता शांति की दिशा में ऐतिहासिक कदम है, लेकिन इसकी सफलता कार्यान्वयन और राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगी।
इतिहास बताता है कि 1962 के आईसीजे फैसले के बाद भी राष्ट्रवादी भावनाएँ बार-बार हिंसा में बदलीं।
थाईलैंड और कंबोडिया दोनों में घरेलू राजनीति में “सीमा” का मुद्दा लोकप्रिय समर्थन जुटाने का साधन रहा है, इसलिए यह जरूरी है कि समझौता केवल कागज़ी दस्तावेज़ न बन जाए।
संयुक्त राष्ट्र और आसियान की निरंतर निगरानी ही इसे स्थायी बना सकती है।
निष्कर्ष
थाईलैंड और कंबोडिया का 2025 शांति समझौता दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में एक कूटनीतिक मील का पत्थर है।
यह न केवल एक सीमित सैन्य संघर्ष को समाप्त करता है, बल्कि यह दिखाता है कि क्षेत्रीय सहयोग और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता कैसे साझा समृद्धि की राह खोल सकती है।
कुआलालंपुर में हुआ यह समझौता उस विचार का प्रतीक है कि शांति केवल हथियारों की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि विश्वास और विकास की उपस्थिति है।
भविष्य के लिए, यह समझौता इस बात की परीक्षा बनेगा कि क्या दक्षिण-पूर्व एशिया अपनी जटिल ऐतिहासिक विरासत से आगे बढ़कर एक स्थायी सुरक्षा समुदाय (Security Community) के रूप में उभर सकता है।
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