Saudi Arabia–Pakistan Defence Pact 2025: Rise of a Potential “Muslim NATO” and Its Geopolitical Implications
सऊदी अरब–पाकिस्तान रक्षा समझौता और “मुस्लिम NATO” की संभावना: एक गहन शैक्षणिक विश्लेषण
प्रस्तावना
17 सितंबर 2025 को सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हस्ताक्षरित रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौता (Strategic Mutual Defence Agreement) न केवल दो मुस्लिम देशों के बीच बढ़ते सुरक्षा सहयोग का प्रतीक है, बल्कि इसने वैश्विक भू-राजनीतिक विमर्श में एक नई बहस को जन्म दिया है। इस समझौते का प्रमुख प्रावधान—“किसी एक देश पर हमला दोनों पर हमला माना जाएगा”—स्पष्ट रूप से NATO के अनुच्छेद 5 की याद दिलाता है, जो सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा पर आधारित है। यही कारण है कि विशेषज्ञ इसे एक संभावित “मुस्लिम NATO” की दिशा में पहला ठोस कदम मान रहे हैं।
पाकिस्तान ने संकेत दिया है कि आने वाले समय में UAE, कतर और अज़रबाइजान जैसे अन्य मुस्लिम देश भी इस संरचना में शामिल हो सकते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया के शक्ति-संतुलन को पुनर्परिभाषित कर सकती है, बल्कि भारत सहित पूरे एशियाई भूगोल की रणनीतिक गणनाओं को भी प्रभावित कर सकती है।
समकालीन भू-राजनीतिक पृष्ठभूमि
मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया वर्तमान समय में व्यापक भू-राजनीतिक पुनर्संरचना के दौर से गुजर रहे हैं। अमेरिका की “पिवट टू एशिया” नीति के कारण उसकी पश्चिम एशिया में सक्रियता घट रही है, जबकि चीन “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” के माध्यम से इस क्षेत्र में अपनी पकड़ बढ़ा रहा है। वहीं रूस–यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक रक्षा संधियों और ऊर्जा साझेदारियों को नए सिरे से परिभाषित किया है।
खाड़ी क्षेत्र में ईरान–सऊदी प्रतिद्वंद्विता, यमन संघर्ष, और सीरिया की अस्थिरता ने सामूहिक सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता को और बढ़ा दिया है। इसी पृष्ठभूमि में, सऊदी अरब अपनी पारंपरिक अमेरिकी निर्भरता से हटकर एक बहुस्तरीय सुरक्षा ढांचे की ओर अग्रसर दिखाई देता है।
दूसरी ओर, दक्षिण एशिया में भारत–पाकिस्तान तनाव, अफगानिस्तान में तालिबान शासन, और इस्लामी आतंकवाद के पुनरुत्थान ने पाकिस्तान के लिए ऐसे साझेदार की तलाश को आवश्यक बना दिया है जो न केवल उसकी सुरक्षा आवश्यकताओं को पूरा करे, बल्कि आर्थिक राहत भी प्रदान करे।
सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौते की प्रकृति
यह समझौता चार प्रमुख स्तंभों पर आधारित है—सामूहिक रक्षा प्रतिबद्धता, संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण, खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान, और रक्षा प्रौद्योगिकी सहयोग। समझौते में स्पष्ट किया गया है कि किसी भी बाहरी हमले की स्थिति में दोनों देश एक-दूसरे के साथ खड़े रहेंगे।
साथ ही, इसमें भविष्य में अन्य मुस्लिम देशों को शामिल करने की संभावनाओं का भी उल्लेख है। यह केवल सैन्य गठबंधन नहीं है, बल्कि इसमें आर्थिक सहयोग और कूटनीतिक समन्वय के पहलू भी निहित हैं।
सऊदी अरब के लिए यह समझौता अमेरिकी सुरक्षा छत्र से आंशिक स्वायत्तता प्राप्त करने का प्रयास है, जबकि पाकिस्तान के लिए यह आर्थिक और रणनीतिक पुनरुद्धार का अवसर है। हालांकि, इस समझौते की कमांड संरचना, संसाधन आवंटन और संकट-प्रतिक्रिया तंत्र पर अभी भी स्पष्टता का अभाव है, जिससे इसकी वास्तविक प्रभावशीलता सीमित हो सकती है।
“मुस्लिम NATO” की अवधारणा: सिद्धांत, संभावनाएँ और सीमाएँ
“मुस्लिम NATO” की अवधारणा कोई नई नहीं है। 2016 में सऊदी नेतृत्व में बने “इस्लामिक मिलिट्री काउंटर टेररिज्म कोएलिशन (IMCTC)” को इसी दिशा में एक प्रारंभिक प्रयास माना गया था। किंतु वर्तमान सऊदी–पाकिस्तान समझौता इस विचार को संस्थागत और कानूनी आधार प्रदान करता है।
संभावनाएँ:
यदि यह ढांचा आगे बढ़ता है, तो यह मुस्लिम दुनिया के भीतर सामूहिक सुरक्षा, सैन्य आधुनिकीकरण, और क्षेत्रीय स्थिरता को नई दिशा दे सकता है। इसके माध्यम से मुस्लिम-बहुल देश बाहरी शक्तियों पर निर्भरता घटाकर आत्मनिर्भर रक्षा ढांचे की ओर बढ़ सकते हैं। पाकिस्तान का अनुभव, सऊदी अरब की वित्तीय शक्ति, और UAE की आधुनिक रक्षा तकनीक इस गठबंधन को व्यावहारिक रूप दे सकते हैं।चुनौतियाँ:
हालांकि, इस परियोजना के सामने गंभीर बाधाएँ भी हैं। मुस्लिम देशों के रणनीतिक हित एक-दूसरे से भिन्न हैं—ईरान–सऊदी वैमनस्य, तुर्की–सऊदी प्रतिस्पर्धा, और कतर–UAE मतभेद किसी भी सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को कमजोर कर सकते हैं।साथ ही, अधिकांश संभावित सदस्य देश पहले से ही अमेरिका या पश्चिमी शक्तियों के साथ सुरक्षा समझौतों से बंधे हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता सीमित होती है।
“मुस्लिम एकता” का विचार धार्मिक भावनाओं में तो आकर्षक है, लेकिन व्यवहार में यह राष्ट्रहितों के टकराव और शिया–सुन्नी विभाजन के कारण अक्सर अव्यावहारिक सिद्ध होता है।
अन्य संभावित सदस्य देश: UAE, कतर और अज़रबाइजान
UAE और कतर दोनों खाड़ी क्षेत्र में आर्थिक रूप से शक्तिशाली देश हैं और सऊदी अरब के साथ उनका सामरिक सहयोग बढ़ रहा है। UAE पहले से ही सऊदी-नेतृत्व वाले रक्षा अभियानों में शामिल रहा है, जबकि कतर 2021 के बाद से खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) में अपनी सक्रिय भूमिका पुनः स्थापित कर चुका है।
अज़रबाइजान, जो नागोर्नो-कराबाख संघर्ष में पाकिस्तान के खुलकर समर्थन के कारण उसके करीब आया है, इस गठबंधन को काकेशस क्षेत्र तक विस्तार दे सकता है।
इसके अतिरिक्त, तुर्की, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश भी इस विचार के प्रति सहानुभूति रख सकते हैं, बशर्ते यह गठबंधन केवल धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक सुरक्षा और आर्थिक हितों पर आधारित हो।
फिर भी, इन देशों के लिए चुनौती यह है कि वे अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाए रखें। अमेरिका, चीन, और रूस जैसे शक्तिशाली देशों के साथ उनके बहुआयामी संबंध किसी भी एकतरफा रक्षा गठबंधन को अपनाने में बाधक हो सकते हैं।
भारत के दृष्टिकोण से रणनीतिक विश्लेषण
भारत के लिए यह समझौता मिश्रित निहितार्थ रखता है। एक ओर, यह पाकिस्तान को मध्य पूर्व में एक वैकल्पिक शक्ति मंच प्रदान करता है, जो भारत के लिए सुरक्षा चिंता का विषय हो सकता है। दूसरी ओर, भारत के ऊर्जा और प्रवासी हित सऊदी अरब और UAE से गहराई से जुड़े हुए हैं, जिन पर इस नए समीकरण का अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ सकता है।
यदि यह “मुस्लिम NATO” आकार लेता है, तो यह दक्षिण एशिया में नया सुरक्षा ब्लॉक तैयार करेगा, जिससे भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता पर दबाव बढ़ सकता है।
फिर भी, भारत के पास संतुलन साधने के कई उपाय मौजूद हैं। वह QUAD, IORA, और BRICS+ जैसे मंचों के माध्यम से अपनी स्थिति सुदृढ़ कर सकता है। साथ ही, भारत को सऊदी अरब और UAE के साथ ऊर्जा सहयोग, रक्षा व्यापार, और तकनीकी निवेश को और प्रगाढ़ बनाना चाहिए ताकि वह खाड़ी क्षेत्र में अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सके।
कूटनीतिक दृष्टि से, भारत को इस संभावित गठबंधन को एक क्षेत्रीय शक्ति प्रयोगशाला के रूप में देखना चाहिए और अपनी नीतियों को सतर्क यथार्थवाद के साथ ढालना चाहिए।
निष्कर्ष
सऊदी अरब–पाकिस्तान रक्षा समझौता एक ऐतिहासिक मोड़ का प्रतीक है, जो इस्लामी विश्व में सामूहिक सुरक्षा तंत्र के उदय की संभावना को प्रबल करता है। यह कदम न केवल दोनों देशों के पारंपरिक संबंधों को संस्थागत रूप देता है, बल्कि एक नए भू-राजनीतिक समीकरण का भी संकेत है, जो “मुस्लिम NATO” के रूप में आकार ले सकता है।
हालांकि, इस गठबंधन की सफलता कई कारकों पर निर्भर करेगी—सदस्य देशों की रणनीतिक एकता, संसाधन क्षमताएँ, नेतृत्व की निरंतरता, और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के साथ तालमेल। यदि ये देश व्यावहारिकता, पारदर्शिता, और समानता के सिद्धांतों पर आगे बढ़ते हैं, तो यह गठबंधन क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान दे सकता है।
लेकिन यदि यह केवल धार्मिक या प्रतीकात्मक आधार पर सीमित रह गया, तो यह एक और असफल “इस्लामी एकता प्रयोग” बन सकता है।
भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह इस उभरते समीकरण को रणनीतिक सतर्कता और कूटनीतिक विवेक के साथ देखे, ताकि उसके राष्ट्रीय हित, ऊर्जा सुरक्षा, और पश्चिम एशिया में स्थायी प्रभाव अक्षुण्ण बने रहें।
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