🌿 “मधव नेशनल पार्क में भैरिया जनजाति संघर्ष: वन अधिकार बनाम धार्मिक अतिक्रमण”
प्रस्तावना
भारत के जंगल सिर्फ हरियाली का प्रतीक नहीं हैं — वे इतिहास, संस्कृति और आजीविका की जीवित धरोहर हैं। लेकिन जब संरक्षण, धर्म और विकास की तीनों धाराएँ एक साथ टकराती हैं, तो अक्सर सबसे कमजोर आवाजें ही दब जाती हैं।
मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में फैला माधव नेशनल पार्क भी आज ऐसी ही त्रासदी का गवाह है, जहां एक ओर "आध्यात्मिक विस्तार" का दावा करने वाला आश्रम है, तो दूसरी ओर अपने वैधानिक वन अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करती भैरिया जनजाति।
2017 से चल रहा यह विवाद सिर्फ भूमि या पर्यावरण का प्रश्न नहीं रहा — यह अब आदिवासी स्वायत्तता, धार्मिक प्रभाव और राज्य की निष्क्रियता के बीच खिंची एक गहरी रेखा बन चुका है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जब “आस्था” ने पार किया जंगल की सीमा
1980 के दशक में स्थापित श्री परमहंस आश्रम प्रारंभ में एक साधारण आध्यात्मिक केंद्र था। लेकिन वर्षों में इसका दायरा 50 एकड़ से अधिक तक फैल गया।
2017 में स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि आश्रम ने बिना वैध अनुमति के वन भूमि पर निर्माण, बाड़बंदी और पेड़ों की कटाई की है — जो भारतीय वन अधिनियम, 1927 तथा वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 दोनों का उल्लंघन था।
सैटेलाइट चित्रों ने इन आरोपों को और मजबूत किया — सिर्फ दो वर्षों (2015–2017) में निर्मित क्षेत्रफल 15–20% तक बढ़ा, जिससे आसपास के झाड़ीदार वन खत्म हो गए।
ये वही क्षेत्र थे जहां से भैरिया जनजाति ईंधन, औषधीय पौधे और छोटे वन उत्पाद (NTFP) एकत्र करती थी।
प्रशासन ने 2018 में निष्कासन आदेश जारी किए, लेकिन राजनीतिक संरक्षण और विभागीय शिथिलता ने इस कार्रवाई को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
धीरे-धीरे आश्रम की दीवारें उस बाड़ में बदल गईं जिसने जंगल और जनजाति के बीच की दूरी को स्थायी बना दिया।
भैरिया जनजाति: पहाड़ों के लोग, सीमाओं में कैद अधिकार
भैरिया जनजाति, जिन्हें भारत सरकार ने Particularly Vulnerable Tribal Group (PVTG) के रूप में सूचीबद्ध किया है, मध्य भारत की पहाड़ियों में बसी एक अर्ध-खानाबदोश जनजाति है।
इनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत झूम खेती और वनों से मिलने वाले उत्पाद हैं।
शिवपुरी ज़िले में 2013–15 के बीच इन्हें वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के तहत सामुदायिक वन संसाधन (CFR) अधिकार दिए गए — जिससे इन्हें अपनी पारंपरिक भूमि पर स्वामित्व मिला।
लेकिन यह अधिकार सिर्फ कागजों में रह गया।
आश्रम की बाड़बंदी और वन विभाग की निष्क्रियता ने इन अधिकारों को प्रभावहीन बना दिया।
वर्तमान में लगभग 150 भैरिया परिवार FRA शीर्षक पत्रों के बावजूद अपने ही जंगल में सीमित होकर रह गए हैं।
उनकी आर्थिक स्थिति भी इसी विस्थापन की कहानी कहती है —
औसत वार्षिक आय ₹20,000 से भी कम,
और 70% घर अब भी कच्चे व असुरक्षित हैं।
इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने प्रधानमंत्री आवास योजना (PM-AWAS) के तहत पक्के, पर्यावरण-अनुकूल घर बनाने की कोशिश की।
लेकिन 2023 में आश्रम के सुरक्षा कर्मियों ने “धार्मिक भूमि” का दावा करते हुए इन निर्माणों को रोक दिया।
एक बुजुर्ग भैरिया ने कहा —
“हमारी ज़मीन पर ही अब हम पराए बन गए हैं। यह भूमि हमारी मां है, और अब मां के पास लौटना भी अपराध बन गया है।”
प्रशासनिक और कानूनी उलझनें
2022 में जब राज्य आवास बोर्ड ने PM-AWAS के तहत 200 यूनिटों के निर्माण की अनुमति दी, तो आश्रम ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया।
उसने Limitation Act, 1963 के तहत “प्रतिकूल कब्ज़े (Adverse Possession)” का दावा किया, यह कहते हुए कि वह दशकों से इस भूमि पर “शांतिपूर्वक” निवास कर रहा है।
दूसरी ओर, वन विभाग ने FRA की धारा 2(1)(d) का हवाला देकर कहा कि किसी भी भूमि हस्तांतरण के लिए ग्राम सभा की सहमति आवश्यक है, जो यहां अनुपस्थित थी।
कानूनी लड़ाई सात वर्षों से जारी है।
2024 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक संयुक्त सर्वेक्षण का आदेश दिया, जिसमें पाया गया कि आश्रम की लगभग 60% भूमि वास्तव में राजस्व-परित्यक्त वन क्षेत्र है।
फिर भी प्रशासनिक उदासीनता के चलते न तो निष्कासन हुआ, न पुनर्स्थापन।
वन अधिकारी की टिप्पणी इस उदासी को और स्पष्ट करती है —
“हम कानून के तहत दोनों पक्षों के अधिकारों की रक्षा करना चाहते हैं, परंतु कोई भी निर्णय राजनीतिक दबावों से मुक्त नहीं।”
धर्म, राज्य और विकास की त्रयी
यह विवाद केवल “भैरिया बनाम आश्रम” नहीं है — बल्कि यह भारतीय समाज में धार्मिक संस्थानों के विस्तार और जनजातीय अधिकारों के हाशिए पर जाने की व्यापक प्रवृत्ति का हिस्सा है।
देशभर में धार्मिक संस्थानों द्वारा लगभग 15 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण दर्ज किया गया है (CSE रिपोर्ट, 2020)।
इस पृष्ठभूमि में भैरिया का संघर्ष उस पारिस्थितिक न्याय (Ecological Justice) की याद दिलाता है जिसे FRA लाना चाहता था —
ऐसा न्याय जो तेंदुओं के लिए भी जगह बनाए और जनजातियों के लिए भी सम्मान।
नीतिगत संकेत और संभावित समाधान
इस प्रकरण से भारत की वन-शासन प्रणाली की कई कमजोरियाँ उजागर होती हैं:
- FRA का आंशिक कार्यान्वयन – देशभर में अब तक केवल 40% सामुदायिक वन संसाधन शीर्षक ही वितरित हुए हैं।
- प्रशासनिक अस्पष्टता – पर्यावरण, धार्मिक संस्थान और जनजातीय मामलों के विभागों के बीच अधिकार क्षेत्र का टकराव।
- विकास योजनाओं का असमान प्रभाव – PM-AWAS जैसी योजनाएँ तभी सफल होंगी जब भूमि स्वामित्व का प्रश्न पहले सुलझे।
इसलिए नीति स्तर पर कुछ ठोस कदम आवश्यक हैं —
- (1) PVTG प्रतिनिधित्व के साथ राज्य FRA ट्रिब्यूनल की स्थापना, ताकि लटके हुए मामलों का त्वरित समाधान हो सके।
- (2) GIS आधारित “सांस्कृतिक-धार्मिक-पर्यावरणीय” ज़ोनिंग प्रणाली, जिससे संरक्षित क्षेत्रों में अतिक्रमण की रेखा स्पष्ट की जा सके।
- (3) सामुदायिक-नेतृत्व वाली PM-AWAS ऑडिट प्रक्रिया, ताकि लाभार्थी वही हों जिनके पास वैध अधिकार हैं।
- (4) को-मैनेजमेंट मॉडल का विस्तार — जैसा ओडिशा और नागालैंड में FRA के तहत सफलतापूर्वक लागू किया गया है।
निष्कर्ष
शिवपुरी का यह संघर्ष किसी छोटे से भूखंड का विवाद नहीं है — यह उस बुनियादी प्रश्न का प्रतीक है कि भारत अपने जंगलों में किसके अधिकार को प्राथमिकता देता है?
क्या “संरक्षण” का अर्थ स्थानीय समुदायों को हटाना है, या उनके साथ मिलकर जंगलों की रक्षा करना?
भैरिया जनजाति का संघर्ष हमें यही याद दिलाता है कि विकास और अधिकार एक-दूसरे के शत्रु नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व के सहयात्री हैं।
अगर FRA का ईमानदारी से पालन किया जाए और धार्मिक-राजनीतिक प्रभावों से वन नीति को मुक्त रखा जाए, तो माधव नेशनल पार्क तेंदुओं और लोगों — दोनों के लिए साझा आश्रय बन सकता है।
जब जंगल में दीवारें खड़ी होती हैं, तो सबसे पहले गिरती है विश्वास की दीवार।
और जब वो टूटती है, तभी सच्चा संरक्षण शुरू होता है।
संदर्भ
- बेरा, एस. (2019). वन अधिकार और स्वदेशी प्रतिरोध. ओरिएंट ब्लैकस्वान।
- पर्यावरण एवं विज्ञान केंद्र (2020). भारत की वन स्थिति रिपोर्ट. CSE प्रकाशन।
- भारत वन सर्वेक्षण (2021). भारत वन स्थिति रिपोर्ट. पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय।
- लक्ष्मण, ए. (2025). “जंगल में एक बाड़: शिवपुरी जिले में एक कमजोर जनजातीय समूह अपने अधिकारों के लिए लड़ता है।” The Hindu।
- जनजातीय कार्य मंत्रालय (2023). PVTG पर वार्षिक रिपोर्ट। भारत सरकार।
- राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (2022). भारत में PVTG की स्थिति।
- संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (2022). स्वदेशी लोग और सतत विकास।
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