China’s New Air-Defence Base near Pangong Tso: Satellite Evidence of Strategic Militarization along the India-China Border
पांगोंग त्सो के पास चीन का सामरिक निर्माण: उपग्रह चित्रों से झलकती नई भू-राजनीतिक चाल
प्रस्तावना
भारत और चीन के बीच संबंध सदैव एक विचित्र द्वंद्व से भरे रहे हैं — जहाँ एक ओर कूटनीति मुस्कुराहटें बाँटती है, वहीं दूसरी ओर सीमाओं पर सैनिक तैनाती सर्द हवाओं को और तीखा बना देती है।
हाल ही में जारी उच्च-रिज़ॉल्यूशन उपग्रह चित्रों ने इस विरोधाभास को फिर उजागर किया है। इन चित्रों में यह स्पष्ट दिखता है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एयर फोर्स (PLAAF) ने अक्साई चिन क्षेत्र में पांगोंग त्सो झील के पूर्वी तट के पास एक विशाल वायु रक्षा परिसर (Air Defence Complex) का निर्माण तेज़ी से शुरू किया है।
यह वही इलाका है जो 2020 के गलवान संघर्ष के बाद से दोनों देशों के बीच संवेदनशीलता का केंद्र बना हुआ है।
चौंकाने वाली बात यह है कि यह निर्माण ऐसे समय में हो रहा है जब भारत और चीन ने प्रत्यक्ष वाणिज्यिक उड़ानें फिर से शुरू की हैं और संबंधों को सामान्य करने की दिशा में संवाद को पुनर्जीवित किया है।
ऐसे में यह सैन्य गतिविधि एक कूटनीतिक विरोधाभास (diplomatic paradox) को जन्म देती है — जहां एक हाथ दोस्ती का संदेश देता है और दूसरा हाथ सीमा पर किला बनाता है।
निर्माण का स्वरूप और भौगोलिक स्थिति
पांगोंग त्सो झील के पूर्वी किनारे पर, समुद्र तल से लगभग 4,300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह ठिकाना चीन के नियंत्रण वाले क्षेत्र में है, जो गालवान घाटी संघर्ष स्थल से लगभग 100 किलोमीटर पूर्व स्थित है।
उपग्रह चित्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, सितंबर 2025 में यहाँ भूमि समतलीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई थी और अक्टूबर के अंत तक वहाँ कई मिसाइल प्रक्षेपण स्थल, रडार टावर और हवाई आश्रय बन चुके थे।
मुख्य विशेषताएँ
- चार मजबूत हवाई आश्रय (Hardened Aircraft Shelters) – जिनका आकार लगभग 25×20 मीटर है, और जिन्हें J-20 स्टेल्थ फाइटर या J-16 जैसे आधुनिक लड़ाकू विमानों को सुरक्षित रखने हेतु बनाया गया है।
- छह मिसाइल प्रक्षेपण प्लेटफॉर्म – संभवतः HQ-9B या HQ-22 जैसी लंबी दूरी की वायु रक्षा प्रणालियों के लिए।
- फेज़्ड एरे रडार सिस्टम – जो लगभग 300 किलोमीटर तक की हवाई गतिविधियों को ट्रैक कर सकता है।
- भूमिगत ईंधन भंडार और नियंत्रण बंकर – जो इसे एक स्थायी और स्वायत्त ठिकाने में बदल देते हैं।
इस निर्माण की वास्तुकला चीन के होटान (Xinjiang) और नगारी गोंसा (Tibet) एयरबेस से मिलती-जुलती है।
लेकिन इसमें इस्तेमाल की गई छलावरण तकनीक और डिकॉय ढाँचे स्पष्ट करते हैं कि चीन ने अब युद्धक रणनीति को आधुनिक उपग्रह निगरानी के अनुरूप ढाल लिया है।
भारत-चीन संबंधों के संदर्भ में
1962 के युद्ध से लेकर 2020 के गलवान टकराव तक, भारत-चीन सीमा पर तनाव कभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ।
हालाँकि 1993, 1996 और 2024 के समझौतों में दोनों पक्षों ने यह स्वीकार किया था कि LAC के 10 किमी भीतर कोई स्थायी सैन्य निर्माण नहीं होगा, परंतु यह नया ठिकाना उन्हीं वादों की भावना के विपरीत प्रतीत होता है।
भारत ने इस निर्माण पर कड़ा विरोध जताते हुए इसे “एकतरफ़ा सैन्य विस्तार” बताया है।
विदेश मंत्रालय के अनुसार, यह कदम दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली के प्रयासों को कमजोर करता है।
वहीं, चीन का कहना है कि यह “सीमा सुरक्षा के लिए आवश्यक सामान्य निर्माण” है — जो कि उनकी परंपरागत नीति के अनुरूप एक राजनयिक बचाव-युक्ति लगती है।
चीन-पाकिस्तान सामरिक धुरी
दिलचस्प बात यह है कि जब पांगोंग क्षेत्र में यह नया ठिकाना बन रहा है, उसी समय चीन ने पाकिस्तान के साथ JF-17 Block-III लड़ाकू विमानों और PL-15E एयर-टू-एयर मिसाइलों के संयुक्त उत्पादन की दिशा में प्रगति तेज की है।
इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि चीन केवल भारत के साथ सीमा विवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि वह एक व्यापक क्षेत्रीय सैन्य ढाँचा (air defence arc) तैयार कर रहा है — जो स्कर्दू (पाकिस्तान) से लेकर अक्साई चिन और तिब्बत तक फैला हुआ है।
यह गठजोड़ भारत के सिलीगुड़ी कॉरिडोर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों पर सामरिक दबाव बढ़ाने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है।
सैन्य संतुलन पर प्रभाव
भारत ने पिछले कुछ वर्षों में लद्दाख, तवांग और सिक्किम सेक्टर में अपने S-400 वायु रक्षा स्क्वाड्रन और ब्राह्मोस मिसाइल रेजीमेंट्स की तैनाती की है।
चीन का यह नया ठिकाना उसी संतुलन को चुनौती देता है।
HQ-9B मिसाइल प्रणाली की 200 किमी की मारक सीमा भारत के लेह एयरबेस तक पहुँचती है।
यदि चीन इस ठिकाने को सक्रिय रखता है, तो यह भारत की हवाई गतिविधियों को सीमित कर सकता है, विशेष रूप से Su-30MKI और Rafale जैसे विमानों की परिचालन क्षमता को।
यह एक ऐसी स्थिति पैदा करता है, जहाँ दोनों देशों की सेनाएँ “संयम और प्रतिक्रिया” के बीच फँस सकती हैं — और किसी भी छोटे-से गलत कदम से अनियोजित टकराव (accidental escalation) संभव है।
कूटनीतिक और आर्थिक परिणाम
राजनयिक स्तर पर यह विकास भारत-चीन संवाद को कठिन बना देता है।
नवंबर 2025 में प्रस्तावित WMCC बैठक अब उसी विश्वास के अभाव में होगी, जो सीमा शांति के लिए आवश्यक है।
साथ ही, दोनों देशों के बीच बढ़ती असुरक्षा का असर व्यापारिक संबंधों पर भी पड़ सकता है।
2024 में भारत-चीन व्यापार 136 अरब डॉलर तक पहुँचा था, लेकिन अगर सीमा तनाव बढ़ता है तो कंपनियाँ फिर से “डिकपलिंग” की राह पकड़ सकती हैं।
भविष्य की दिशा
पांगोंग त्सो का यह नया ठिकाना केवल एक सैन्य निर्माण नहीं, बल्कि एशियाई शक्ति संतुलन का दर्पण है।
चीन स्पष्ट रूप से यह दिखाना चाहता है कि वह हिमालयी मोर्चे पर भी स्थायी उपस्थिति बनाए रखना चाहता है।
वहीं भारत के लिए यह चुनौती है कि वह सुरक्षा और संवाद के बीच संतुलन साधे — ताकि स्थिति नियंत्रण से बाहर न जाए।
भविष्य की दिशा इसी पर निर्भर करेगी कि दोनों देश अपनी सीमाओं को प्रतिस्पर्धा के मैदान के बजाय संवाद के सेतु के रूप में देखना सीखें।
विश्वास, पारदर्शिता और वास्तविक संवाद ही इस “ऊँचे युद्धक्षेत्र” में स्थिरता की एकमात्र गारंटी हैं।
निष्कर्ष
हिमालय के बर्फ़ीले शिखरों पर अब फिर से गर्मी महसूस की जा रही है — यह युद्ध की नहीं, बल्कि अविश्वास की गर्मी है।
चीन का पांगोंग त्सो के पास नया ठिकाना इस बात का प्रतीक है कि एशिया में शक्ति-संतुलन की लड़ाई केवल शब्दों या व्यापार तक सीमित नहीं है; यह अब भूमि और आकाश दोनों पर नियंत्रण की दौड़ में बदल चुकी है।
भारत को इस चुनौती का जवाब सिर्फ हथियारों से नहीं, बल्कि कूटनीतिक चातुर्य, तकनीकी आत्मनिर्भरता और सामरिक धैर्य से देना होगा।
क्योंकि आज का संघर्ष केवल सीमाओं का नहीं, बल्कि विश्वसनीयता का भी है — और इस युद्ध में विजय उसी की होगी, जो संयम के साथ दृढ़ता दिखाए।
लेखक टिप्पणी:
यह लेख पूर्णतः मौलिक और विश्लेषणात्मक है, जो रक्षा और विदेश नीति दोनों दृष्टियों से भारत-चीन सीमा की बदलती परिस्थितियों का संतुलित मूल्यांकन प्रस्तुत करता है।
संदर्भ
- Maxar Technologies (2025). WorldView-3 Imagery, 22 October 2025.
- Planet Labs (2025). SkySat Constellation Capture, 20 October 2025.
- भारत का विदेश मंत्रालय (2025). एलएसी विकास पर प्रेस विज्ञप्ति।
- Stockholm International Peace Research Institute (SIPRI) (2024). Arms Transfers Database.
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