बगराम एयरबेस विवाद - भारत की संतुलित विदेश नीति की नई झलक
7 अक्टूबर 2025 को मॉस्को में हुई “मॉस्को प्रारूप परामर्श” (Moscow Format Consultations on Afghanistan) की बैठक ने एक अप्रत्याशित लेकिन ऐतिहासिक मोड़ दिया। इस बैठक में भारत, तालिबान, पाकिस्तान, चीन और रूस एक साथ खड़े दिखाई दिए — और उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की उस योजना का विरोध किया जिसमें अमेरिका अफगानिस्तान के बगराम हवाई अड्डे पर दोबारा सैन्य कब्जा स्थापित करना चाहता है।
यह संयुक्त रुख न केवल दक्षिण एशिया की रणनीतिक राजनीति में नई दिशा दिखाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि भारत अब “महाशक्तियों के साथ” नहीं, बल्कि “क्षेत्रीय हितों के साथ” खड़ा होना चाहता है।
बगराम एयरबेस: अफगानिस्तान में अमेरिकी महत्वाकांक्षा का केंद्र
बगराम हवाई अड्डा अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से करीब 50 किलोमीटर उत्तर में स्थित है।
1979 में यह सोवियत सेनाओं का प्रमुख ठिकाना था, और 2001 के बाद अमेरिकी सेनाओं ने इसे अपने सबसे बड़े सैन्य अड्डे के रूप में विकसित किया।
यहां से अमेरिका ने दो दशकों तक आतंकवाद विरोधी अभियानों का संचालन किया।
लेकिन 2021 में जब अमेरिकी सेनाएँ अचानक लौट गईं, तो तालिबान ने बिना संघर्ष के इस अड्डे पर कब्जा कर लिया।
बगराम इस तरह अमेरिका की अफगान नीति की विफलता का प्रतीक बन गया।
अब राष्ट्रपति ट्रम्प का इरादा इसे फिर से अमेरिकी नियंत्रण में लेने का है।
उनका तर्क है कि अफगानिस्तान में आतंकवादी नेटवर्क दोबारा सक्रिय हो रहे हैं और अमेरिका को “पहले से मौजूद ठिकानों” की जरूरत है।
लेकिन क्षेत्रीय देश इसे अफगान संप्रभुता और क्षेत्रीय स्थिरता पर सीधा हमला मानते हैं।
मॉस्को बैठक: एक असामान्य एकजुटता
मॉस्को में हुई बैठक में भारत, रूस, चीन, पाकिस्तान और तालिबान के प्रतिनिधि मौजूद थे।
सभी ने एक संयुक्त बयान जारी कर कहा —
“अफगानिस्तान और उसके पड़ोसी देशों में किसी भी विदेशी सैन्य ढांचे की पुनः स्थापना अस्वीकार्य है।”
यह बयान स्पष्ट रूप से ट्रम्प प्रशासन की बगराम कब्जा नीति की ओर इशारा करता है।
दिलचस्प बात यह है कि भारत — जो कभी तालिबान शासन के खिलाफ सबसे मुखर देशों में था — अब उसी मंच पर तालिबान के साथ खड़ा नजर आया।
भारत की भूमिका: रणनीति या व्यावहारिकता?
भारत का यह कदम भावनात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से व्यावहारिक है।
अफगानिस्तान भारत के लिए केवल एक पड़ोसी देश नहीं, बल्कि मध्य एशिया से जुड़ने का दरवाज़ा है।
बगराम पर अमेरिकी कब्जा भारत की “क्षेत्रीय स्वायत्तता” की नीति के खिलाफ जाता है।
भारत ने अफगानिस्तान में तीन अरब डॉलर से अधिक की सहायता दी है — सड़कों, स्कूलों, बांधों और संसदीय भवन के निर्माण में।
अब जब तालिबान सत्ता में है, भारत ने सीधे मान्यता नहीं दी है, लेकिन संपर्क बनाए रखे हैं।
इस बयान से भारत यह संकेत देना चाहता है कि वह अफगान जनता के साथ है, लेकिन विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ।
भारत का यह रुख “नेबरहुड फर्स्ट” और “स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी” — दोनों सिद्धांतों के अनुरूप है।
यह स्पष्ट संदेश है कि नई दिल्ली अब अमेरिकी या पश्चिमी दबाव में नहीं, बल्कि अपने भू-राजनीतिक हितों के आधार पर निर्णय ले रही है।
तालिबान के लिए भारत क्यों जरूरी है
तालिबान के लिए भारत आर्थिक और कूटनीतिक दृष्टि से अहम है।
चाबहार बंदरगाह, मानवीय सहायता और व्यापारिक सहयोग जैसे विषय दोनों देशों के लिए लाभकारी हैं।
तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी की आगामी भारत यात्रा (10–12 अक्टूबर) इस दिशा में बड़ा कदम मानी जा रही है।
संभावना है कि इस यात्रा के दौरान मानवीय सहायता, दवाओं की आपूर्ति और अफगान उत्पादों के निर्यात पर समझौते हों।
यह सहयोग यदि स्थिर हुआ, तो भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है — बिना किसी पश्चिमी मध्यस्थ के।
क्षेत्रीय प्रभाव: एक नया शक्ति-संतुलन
मॉस्को प्रारूप की यह एकजुटता अमेरिका के लिए स्पष्ट संदेश है कि अफगानिस्तान अब किसी के “सामरिक खेल” का मैदान नहीं बनेगा।
इस कदम ने दक्षिण और मध्य एशिया में शक्ति-संतुलन की नई रेखाएं खींच दी हैं।
एक ओर अमेरिका और पाकिस्तान का पुराना गठजोड़ फिर उभरता दिख रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत, रूस, चीन और तालिबान का साझा मंच आकार ले रहा है।
रूस और चीन इसे अमेरिकी हस्तक्षेपवाद के खिलाफ अपने व्यापक एजेंडे के हिस्से के रूप में देख रहे हैं।
भविष्य की चुनौतियाँ
हालांकि यह एकजुटता प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण है, लेकिन व्यवहारिक रूप में इसकी सीमाएं भी हैं।
तालिबान पर मानवाधिकार उल्लंघन, महिलाओं की शिक्षा पर रोक और चरमपंथी नीतियों के आरोप बने हुए हैं।
भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसका सहयोग मानवीय और विकासात्मक मुद्दों तक सीमित रहे।
साथ ही, अमेरिका के साथ संवाद बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है, क्योंकि भारत-यूएस रक्षा संबंध आज भी मजबूत हैं।
निष्कर्ष: संप्रभुता के पक्ष में भारत की स्पष्ट आवाज
बगराम विवाद ने भारत की विदेश नीति की परिपक्वता को एक बार फिर उजागर किया है।
भारत न तो अमेरिका का विरोधी बनना चाहता है, न तालिबान का समर्थक —
बल्कि वह क्षेत्रीय स्थिरता, अफगान संप्रभुता और अपने दीर्घकालिक हितों के बीच एक संतुलित मध्य मार्ग तलाश रहा है।
मॉस्को बैठक का यह संयुक्त बयान इस बात का संकेत है कि एशिया अब अपनी शांति और सुरक्षा की राह खुद तय करना चाहता है —
बिना किसी बाहरी दबाव के, अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय जिम्मेदारी के साथ।
With Reuters and Indian Express Inputs
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