Afghanistan–Pakistan Peace Talks Collapse in Istanbul: No Practical Solution, a Major Setback for Regional Stability
अफगानिस्तान–पाकिस्तान शांति वार्ता विफल: इस्तांबुल में कोई 'व्यावहारिक समाधान' नहीं, क्षेत्रीय शांति के लिए गहरा झटका
सारांश
25 से 29 अक्टूबर 2025 के बीच तुर्की के इस्तांबुल में आयोजित अफगानिस्तान–पाकिस्तान शांति वार्ता, गहन कूटनीतिक प्रयासों के बावजूद, किसी ठोस या व्यावहारिक समझौते तक नहीं पहुंच सकी। पाकिस्तान ने अफगान प्रतिनिधियों पर वार्ता को “जिम्मेदारी से बचने और मुद्दों को टालने” का आरोप लगाया, जबकि तालिबान ने पाकिस्तानी हमलों को “सीमा पार आक्रामकता” बताया। यह विफलता उस समय आई जब दोनों देशों के बीच सीमा पर झड़पें और TTP (Tehreek-e-Taliban Pakistan) की आतंकी गतिविधियां चरम पर हैं। यह परिदृश्य दक्षिण एशिया की शांति के लिए वैसा ही चेतावनी संकेत है जैसा 1990 के दशक में मध्य-पूर्व में हमास के निःशस्त्रीकरण के दौरान देखने को मिला था।
1. परिचय: अविश्वास की लकीरें और अस्थिर भू-राजनीति
अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच संबंध इतिहास, पहचान, धर्म और सुरक्षा—चारों आयामों में उलझे हुए हैं। 1947 से अब तक, यह रिश्ता मित्रता से अधिक अविश्वास का रहा है। पाकिस्तान ने हमेशा अफगानिस्तान को अपनी “रणनीतिक गहराई” के रूप में देखा, जबकि काबुल ने इस्लामाबाद को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेपकारी शक्ति माना।
2021 में तालिबान के सत्ता में लौटने पर पाकिस्तान ने इसे अपने लिए “कूटनीतिक विजय” बताया था। लेकिन यह भ्रम ज्यादा दिनों तक नहीं चला। तालिबान ने न केवल पाकिस्तान की सुरक्षा चिंताओं को अनदेखा किया, बल्कि TTP को “पाकिस्तान का आंतरिक मुद्दा” कहकर उससे दूरी बना ली। इस पृष्ठभूमि में इस्तांबुल की वार्ता क्षेत्रीय स्थिरता के लिए अंतिम उम्मीद के रूप में देखी जा रही थी — परंतु यह भी अंततः अविश्वास की दीवार में धंस गई।
2. पृष्ठभूमि: डुरांड रेखा—इतिहास की सबसे लंबी छाया
2,640 किलोमीटर लंबी डुरांड रेखा मात्र एक सीमा नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद की छोड़ी हुई एक जीवंत दरार है। 1893 में खींची गई यह रेखा पश्तून जनजातियों को दो देशों में विभाजित करती है। पाकिस्तान इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा मानता है, पर अफगानिस्तान इसे औपनिवेशिक अन्याय का प्रतीक मानकर अस्वीकार करता है।
तालिबान शासन के बाद पाकिस्तान ने दावा किया कि TTP को अफगानिस्तान की शरण मिल रही है। TTP के हमलों में खैबर पख्तूनख्वा, उत्तरी वज़ीरिस्तान और बलोचिस्तान में 2024 में 500 से अधिक पाकिस्तानी सुरक्षाकर्मी मारे गए। जवाब में पाकिस्तान ने सीमापार हवाई हमले किए — जिनका तालिबान ने प्रतिरोध करते हुए पाकिस्तानी चौकियों पर रॉकेट दागे।
इन्हीं झड़पों के बीच तुर्की और कतर की मध्यस्थता में 25 अक्टूबर को इस्तांबुल वार्ता शुरू हुई। चर्चाएं पांच विषयों पर केंद्रित थीं: सीमा सुरक्षा, TTP की गतिविधियां, व्यापारिक गलियारा, मानवीय सहायता और राजनयिक विश्वास बहाली। चार दिन की बैठकों के बाद भी कोई संयुक्त घोषणा या रोडमैप जारी नहीं हो सका।
3. पारस्परिक आरोप: विश्वास का पतन
वार्ता के समापन पर पाकिस्तान के सूचना मंत्री अताउल्लाह तरार ने कहा कि “अफगान प्रतिनिधियों ने वास्तविक मुद्दों से जानबूझकर दूरी बनाई और दोषारोपण की राजनीति में लगे रहे।” रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने यहां तक कहा कि “यदि तालिबान TTP को रोकने में विफल रहता है, तो पाकिस्तान अपने सुरक्षात्मक अधिकारों का प्रयोग करेगा।”
इसके जवाब में तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने आरोप लगाया कि “पाकिस्तान बार-बार सीमापार हमले करके संवाद की बुनियाद को नष्ट कर रहा है। TTP पाकिस्तान का आंतरिक विद्रोह है, और अफगानिस्तान को बलपूर्वक दबाने की कोशिशें स्वीकार्य नहीं होंगी।”
इन बयानबाजियों ने वार्ता को एक नीतिगत विमर्श की बजाय आरोप-प्रत्यारोप के मंच में बदल दिया, जहां “राजनीतिक जिम्मेदारी” की बजाय “राष्ट्रीय अभिमान” की प्रतिस्पर्धा चलती रही।
4. TTP की जटिल भूमिका: एक राजनीतिक-वैचारिक चुनौती
TTP को केवल एक आतंकी संगठन मानना विश्लेषणात्मक भूल होगी। इसका जन्म 2007 में अमेरिकी ड्रोन हमलों, फाटा क्षेत्र की उपेक्षा और पश्तून अस्मिता के अपमान के खिलाफ हुआ था। TTP की विचारधारा इस्लामी व्यवस्था और क्षेत्रीय न्याय दोनों के मिश्रण पर आधारित है।
तालिबान की 2021 की जीत ने TTP को अप्रत्यक्ष संरक्षण दिया। संगठन अब 25,000 से अधिक लड़ाकों के साथ अफगान सीमा पर सक्रिय है। इसकी विचारधारा में “इस्लामी न्याय” के साथ-साथ “पश्तून पहचान” का स्वर भी प्रबल है। यह वही भावनात्मक तत्व है जो इसे केवल एक सुरक्षा खतरा नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन बनाता है।
5. हमास से समानता: दोहराई जा रही रणनीतिक भूल
TTP और हमास के बीच ऐतिहासिक संदर्भ में एक गहरी समानता दिखाई देती है। 1993 के ओस्लो समझौते में इज़राइल ने हमास के निःशस्त्रीकरण को शांति की पूर्व-शर्त बनाया था। इसने हमास को राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर कर दिया और अंततः गाजा में समानांतर सत्ता संरचना और हिंसक विद्रोह को जन्म दिया।
पाकिस्तान का वर्तमान दृष्टिकोण भी इसी दिशा में जाता दिखता है — जहां TTP को केवल “सुरक्षा खतरा” कहकर उसकी राजनीतिक मांगों को दरकिनार किया जा रहा है। यदि TTP की शिकायतों — जैसे फाटा क्षेत्रों का विकास, न्यायिक सुधार और पश्तून स्वायत्तता — को संबोधित नहीं किया गया, तो यह उग्रवाद को मिटाने की बजाय और गहरा करेगा।
इतिहास बताता है कि निःशस्त्रीकरण बिना राजनीतिक समावेशन के कभी टिकाऊ शांति नहीं लाता। गाजा की तरह, यदि संवाद के दरवाजे बंद रखे गए, तो TTP भी वैचारिक रूप से और कठोर बन जाएगा — और पाकिस्तान एक दीर्घकालिक अस्थिरता के चक्र में फंस सकता है।
6. क्षेत्रीय प्रभाव: केवल सीमा विवाद नहीं, बल्कि महादेशीय संकट
इस्तांबुल वार्ता की विफलता का असर सीमित नहीं रहेगा — इसका प्रभाव दक्षिण और मध्य एशिया की समग्र सुरक्षा संरचना पर पड़ेगा।
(1) आर्थिक असर:
पाकिस्तान-अफगान व्यापार 2024 में 30% घट गया। अफगानिस्तान की 40% व्यापारिक निर्भरता पाकिस्तान पर है, और सीमा बंदी ने उसकी अर्थव्यवस्था को गहरी चोट दी है।
(2) सुरक्षा असर:
TTP की मजबूती से ISIS-K जैसे ट्रांसनेशनल समूहों को विस्तार का अवसर मिला है। संयुक्त राष्ट्र की 2025 रिपोर्ट के अनुसार, अफगानिस्तान में ISIS-K के 6,000 से अधिक सक्रिय सदस्य हैं।
(3) भू-राजनीतिक असर:
CPEC के पश्चिमी गलियारे पर हमले बढ़े हैं, जिससे चीन के निवेश खतरे में हैं। वहीं भारत की अफगान पुनर्निर्माण परियोजनाएं — जैसे जलविद्युत संयंत्र और सड़कें — भी अप्रत्यक्ष रूप से असुरक्षित होती जा रही हैं।
7. नीति-विश्लेषण: शांति की दिशा में संभावित कदम
इस विफलता से चार स्पष्ट नीति-सूत्र निकलते हैं—
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समावेशी संवाद की आवश्यकता:
केवल राज्य-से-राज्य वार्ता पर्याप्त नहीं है। कोलंबिया के FARC विद्रोहियों के साथ हुई शांति वार्ता की तरह TTP जैसे गुटों को अप्रत्यक्ष रूप से शामिल करना आवश्यक है। -
संयुक्त सीमा प्रबंधन:
डुरांड रेखा पर साझा गश्त, बायोमेट्रिक निगरानी और तीसरे पक्ष की निगरानी (तुर्की या संयुक्त राष्ट्र) के साथ एक “बॉर्डर कोऑर्डिनेशन फ्रेमवर्क” बनाना। -
क्षेत्रीय मंच की स्थापना:
“South Asian Peace and Stability Forum” की स्थापना की जा सकती है, जिसमें तुर्की, ईरान, भारत, चीन और संयुक्त राष्ट्र को शामिल किया जाए। -
विकास आधारित पुनर्वास नीति:
पश्तून बेल्ट में रोजगार, शिक्षा और बुनियादी ढांचे में निवेश कर स्थानीय समुदायों को हिंसक संगठनों से दूर करना।
8. निष्कर्ष: इतिहास खुद को दोहराने से पहले
इस्तांबुल वार्ता की विफलता ने एक कठोर सत्य को फिर उजागर किया है — कि केवल सैन्य बल या कूटनीतिक दबाव से वैचारिक विद्रोह समाप्त नहीं होते। TTP को राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर रखना वही रणनीतिक भूल है जो हमास के संदर्भ में किया गया जो न केवल दो-राष्ट्र समाधान को नष्ट कर दिया बल्कि पूरी शांति प्रकिया को ही नष्ट कर दिया।
यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान वास्तव में स्थायी शांति चाहते हैं, तो उन्हें आतंकवाद-निरोध से आगे बढ़कर राजनीतिक समावेशन, क्षेत्रीय विकास और बहुपक्षीय संवाद की दिशा में कदम उठाने होंगे। अन्यथा, डुरांड रेखा केवल एक सीमा नहीं, बल्कि बारूद की रेखा बन जाएगी — जो किसी भी क्षण दक्षिण एशिया की स्थिरता को जला सकती है।
संदर्भ
- Hindustan Times (29 अक्टूबर 2025). Afghanistan-Pakistan Peace Talks End Without Concrete Results.
- Dawn News (2025). TTP Attacks in 2024: Over 500 Security Personnel Killed.
- Global Counter Terrorism Institute (2024). The TTP Resurgence and Pashtun Nationalism.
- UN Security Council Report (2025). The Rise of ISIS-K in Afghanistan.
- Al Jazeera (2023). The Failure of Hamas Disarmament and the Collapse of the Two-State Solution.
- Foreign Affairs (2022). The Durand Line Dispute: Colonial Legacy and Modern Tensions.
- BBC World (2025). Istanbul Talks Collapse: Pakistan Accuses Kabul of Evasion.
मुख्य निष्कर्ष: TTP का निःशस्त्रीकरण बिना राजनीतिक भागीदारी के, मध्य-पूर्व की तरह दक्षिण एशिया में भी शांति को स्थगित कर देगा।
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