अबॉटाबाद का रहस्य: एक राष्ट्रीय अपमान की कहानी
सन् 2011 की एक काली रात थी। आसमान में बादल छाए थे, और पाकिस्तान के अबॉटाबाद शहर में सन्नाटा पसरा था। यह छोटा-सा शहर, जो हरे-भरे पहाड़ों और सैन्य अकादमी की शान के लिए जाना जाता था, उस रात दुनिया की नजरों में आ गया। एक हवेली, जो बाहर से साधारण-सी दिखती थी, लेकिन अंदर छिपा था दुनिया का सबसे खूंखार आतंकवादी—ओसामा बिन लादेन। और उस रात, अमेरिकी स्पेशल फोर्सेस के हेलीकॉप्टरों ने चुपके से पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश किया, बिना किसी को खबर दिए। कुछ ही घंटों में, बिन लादेन मारा गया, और उसका शव समुद्र की गहराइयों में दफन हो गया। लेकिन इस घटना ने पाकिस्तान को एक ऐसे तूफान में धकेल दिया, जिसे फरहतुल्लाह बाबर अपनी किताब ‘द ज़रदारी प्रेसीडेंसी: नाउ इट मस्ट बी टोल्ड’ में "राष्ट्रीय अपमान" कहते हैं।
एक हवेली, एक रहस्य
अबॉटाबाद कोई जंगल या गुफा नहीं था। यह एक शांत शहर था, जहां सैन्य अकादमी के जवान परेड करते थे और बच्चे स्कूल जाते थे। लेकिन उस हवेली में, जो सैन्य अकादमी से बस कुछ कदम दूर थी, बिन लादेन सालों से छिपा था। ऊंची दीवारें, कांटेदार तार, और कोई खिड़की नहीं—यह हवेली एक किला थी। दुनिया को यकीन था कि बिन लादेन अफगानिस्तान की गुफाओं में होगा, लेकिन वह पाकिस्तान के दिल में, इस्लामाबाद से महज 50 किलोमीटर दूर, आराम से रह रहा था।
जब अमेरिकी कमांडो ने 2 मई 2011 को छापा मारा, तो पाकिस्तान की नींद उड़ गई। बिना इजाजत, बिना खबर, अमेरिका ने पाकिस्तान की जमीन पर ऑपरेशन किया। बिन लादेन मारा गया, लेकिन उसकी मौत से ज्यादा बड़ा सवाल उठा: वह इतने सालों तक अबॉटाबाद में कैसे छिपा रहा? क्या पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी, आईएसआई, को कुछ पता था? क्या सेना ने आंखें मूंद रखी थीं? या यह एक ऐसी चूक थी, जिसने पूरे मुल्क को शर्मसार कर दिया?
ज़रदारी के महल में मातम
इस्लामाबाद में राष्ट्रपति भवन में उस रात हलचल मच गई। राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी, जिन्हें पहले ही भ्रष्टाचार के आरोपों और कमजोर सरकार चलाने के ताने सुनने पड़ रहे थे, अब एक नए संकट में फंस गए। फरहतुल्लाह बाबर, जो ज़रदारी के करीबी सलाहकार और प्रवक्ता थे, उस माहौल को अपनी किताब में बयां करते हैं। वे लिखते हैं, “यह ऐसा था जैसे मुल्क की छाती पर कोई चाकू चला गया हो। हम चट्टान और कठिन जगह के बीच फंस गए थे।”
ज़रदारी को दो मोर्चों पर जंग लड़नी थी। एक तरफ, अमेरिका उनका सबसे बड़ा सहयोगी था, जो हर साल अरबों डॉलर की मदद देता था। उन्हें बराक ओबामा को बधाई देनी पड़ी, लेकिन यह बधाई जनता को नमक छिड़कने जैसी लगी। दूसरी तरफ, पाकिस्तानी जनता गुस्से में थी। लोग सड़कों पर उतर आए, कुछ अमेरिका के खिलाफ नारे लगा रहे थे, तो कुछ अपनी ही सरकार और सेना को कोस रहे थे। “हमारी ज़मीन पर कोई घुस आया, और हमें खबर तक नहीं?” यह सवाल हर गली-नुक्कड़ पर गूंज रहा था।
सेना और सियासत का टकराव
पाकिस्तान की सेना, जो हमेशा मुल्क की सत्ता का असली केंद्र रही, इस बार शर्मिंदगी में डूबी थी। सैन्य अकादमी के पास बिन लादेन का छिपना और अमेरिका का बिना बताए छापा मारना—यह सेना की नाक के नीचे हुआ था। बाबर अपनी किताब में लिखते हैं कि सेना और आईएसआई पर सवाल उठे। क्या उन्हें बिन लादेन की मौजूदगी का अंदाज़ा था? कुछ लोग तो यह भी कहने लगे कि पाकिस्तान “दोहरा खेल” खेल रहा था—अमेरिका से पैसे लेना और आतंकवादियों को पनाह देना।
ज़रदारी की सिविलियन सरकार इस मौके पर और कमजोर पड़ गई। संसद में आपात बैठक हुई। विपक्षी नेता नवाज़ शरीफ ने इस्तीफे की मांग की। बाबर बताते हैं कि ज़रदारी ने कूटनीति से काम लिया। उन्होंने अमेरिका से रिश्ते बनाए रखे, लेकिन कुछ अमेरिकी राजनयिकों को निष्कासित कर जनता को दिखाया कि वे कमजोर नहीं हैं। लेकिन यह सब आसान नहीं था। एक और घोटाला, जिसे “मेमोगेट” कहा गया, ने आग में घी डाल दिया। एक कथित पत्र लीक हुआ, जिसमें ज़रदारी पर सेना को अमेरिकी मदद से काबू करने की साजिश का आरोप लगा। बाबर इसे साजिश कहते हैं, जो अबॉटाबाद के बाद की अराजकता में जन्मी।
राष्ट्रीय अपमान का दंश
अबॉटाबाद की घटना ने पाकिस्तान को दुनिया के सामने नंगा कर दिया। अमेरिका ने उसे “अविश्वसनीय” करार दिया, तो कुछ देशों ने “आतंकवाद का गढ़” कहना शुरू कर दिया। बाबर लिखते हैं कि यह सिर्फ एक छापा नहीं था, बल्कि एक ऐसा झटका था, जिसने पाकिस्तान की खुफिया और सैन्य व्यवस्था की कमजोरियां उजागर कर दीं। ज़रदारी की सरकार ने सुधारों की बात की, लेकिन सेना का दबदबा कम नहीं हुआ।
इस घटना का असर लंबे समय तक रहा। 2013 के चुनावों में ज़रदारी की पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। बाबर अपनी किताब में तर्क देते हैं कि ज़रदारी का कार्यकाल सिर्फ भ्रष्टाचार की कहानियों तक सीमित नहीं था। यह एक ऐसा दौर था, जब पाकिस्तान ने लोकतंत्र को बचाने की कोशिश की, लेकिन अबॉटाबाद जैसे झटकों ने उसे कमजोर कर दिया।
आज की नजर में
जब फरहतुल्लाह बाबर की यह किताब छपी, यह पुरानी कहानी को नए सिरे से देखने का मौका देती है। अबॉटाबाद का वह रात सिर्फ एक छापा नहीं था—यह पाकिस्तान की सियासत, सेना और दुनिया के साथ उसके रिश्तों की कहानी थी। यह किताब हमें याद दिलाती है कि कैसे एक हवेली में छिपा एक शख्स पूरे मुल्क को हिलाकर रख सकता है। और यह सवाल आज भी गूंजता है: क्या पाकिस्तान उस अपमान से उबर पाया? या वह आज भी उसी चट्टान और कठिन जगह के बीच फंसा है?
यह कहानी इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख के आधार पर तैयार की गयी है। अगर आप और अधिक जानकारी चाह रहे हैं तो आप बुक ‘द ज़रदारी प्रेसीडेंसी: नाउ इट मस्ट बी टोल्ड’ को पढ़ सकते हैं।
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