हिंदी दिवस 2025: भाषाई एकता, दक्षिण भारत की असहमति और यूपीएससी दृष्टिकोण
आज, 14 सितंबर 2025 को हिंदी दिवस के अवसर पर, जब हम हिंदी भाषा की समृद्ध विरासत का जश्न मना रहे हैं, तो यह समय है कि हम भारत की भाषाई बहुलता के संदर्भ में गहन चिंतन करें। 1949 में संविधान सभा द्वारा हिंदी को देवनागरी लिपि में संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाए जाने की स्मृति में मनाया जाने वाला यह दिवस न केवल हिंदी की सांस्कृतिक शक्ति का उत्सव है, बल्कि राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम की याद भी दिलाता है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में हिंदी को 'राष्ट्रीय भाषा' के रूप में स्थापित करने के प्रयासों ने गंभीर विवादों को जन्म दिया है, विशेष रूप से दक्षिण भारत में। यह संपादकीय इन विवादों का विश्लेषण करते हुए, संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के दृष्टिकोण से भाषा नीति की चुनौतियों पर प्रकाश डालता है और एक संतुलित मार्ग की आवश्यकता पर जोर देता है।
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का प्रयास भारत की भाषाई विविधता के लिए एक दोधारी तलवार साबित हो रहा है। संविधान में स्पष्ट रूप से 'राष्ट्रीय भाषा' की कोई अवधारणा नहीं है; हिंदी और अंग्रेजी को मात्र संघ की आधिकारिक भाषाओं के रूप में मान्यता दी गई है। फिर भी, केंद्र सरकार के हालिया कदम—जैसे हिंदी को 'लिंकिंग भाषा' के रूप में प्रचारित करना या सरकारी दस्तावेजों में इसका बढ़ता उपयोग—ने गैर-हिंदी भाषी राज्यों में असंतोष पैदा किया है। यह विवाद महज भाषाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक है। एक ओर, हिंदी समर्थक इसे राष्ट्रीय एकीकरण का साधन मानते हैं, जो भारत की बहुभाषी आबादी को एक सूत्र में बांध सकती है। दूसरी ओर, आलोचक इसे 'उत्तर भारत केंद्रित' दृष्टिकोण के रूप में देखते हैं, जो दक्षिण और पूर्वी राज्यों की भाषाओं को हाशिए पर धकेल सकता है। ऐसे में, क्या हिंदी को थोपना एकता की बजाय विभाजन का कारण नहीं बन रहा?
दक्षिण भारत की असहमति इस विवाद का सबसे मुखर आयाम है। ऐतिहासिक रूप से, यह विरोध 1930 के दशक से चला आ रहा है, जब मद्रास प्रेसिडेंसी में हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रयासों के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए थे। द्रविड़ आंदोलन ने इसे 'आर्यन वर्चस्व' के प्रतीक के रूप में खारिज किया, जिसने तमिलनाडु की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया। 1965 के हिंदी-विरोधी आंदोलन, जिसमें सैकड़ों गिरफ्तारियां और कुछ आत्मदाह तक हुए, ने केंद्र को पीछे हटने पर मजबूर किया और अंग्रेजी को सह-आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया। आज, 2025 में भी यह असहमति जारी है। नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत त्रिभाषा फॉर्मूला—जिसमें हिंदी को शामिल करने की सिफारिश की गई—को दक्षिणी राज्यों ने 'सांस्कृतिक साम्राज्यवाद' करार दिया है। तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्य तर्क देते हैं कि हिंदी कोई व्यावसायिक या वैश्विक मूल्य नहीं जोड़ती, जबकि उनकी स्थानीय भाषाएं—तमिल, कन्नड़, मलयालम—अपनी प्राचीन साहित्यिक परंपराओं के साथ राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा हैं। यह असहमति मात्र भावनात्मक नहीं; यह संघवाद के सिद्धांतों से जुड़ी है, जहां राज्यों की भाषाई स्वायत्तता को खतरा महसूस होता है। यदि केंद्र इस असहमति को अनदेखा करता रहा, तो उत्तर-दक्षिण विभाजन और गहरा सकता है, जो भारत की संघीय संरचना के लिए घातक सिद्ध होगा।
इस विवाद का एक महत्वपूर्ण पहलू यूपीएससी जैसी राष्ट्रीय परीक्षाओं की भाषा नीति है। यूपीएससी परीक्षा में प्रारंभिक चरण केवल हिंदी और अंग्रेजी में आयोजित होता है, जबकि मुख्य परीक्षा में अनुसूची 8 की किसी भी भाषा में उत्तर दिए जा सकते हैं। साक्षात्कार में भी उम्मीदवार अपनी पसंद की भाषा चुन सकते हैं। सतही तौर पर, यह नीति विविधता का सम्मान करती प्रतीत होती है, लेकिन वास्तविकता में यह असमानता पैदा करती है। गैर-हिंदी भाषी अभ्यर्थी, विशेष रूप से दक्षिण भारत से, प्रारंभिक परीक्षा में भाषाई बाधाओं का सामना करते हैं, जिससे उनकी सफलता दर कम रहती है। आंकड़े दर्शाते हैं कि तमिलनाडु जैसे राज्यों से आईएएस अधिकारियों का प्रतिशत अपेक्षाकृत कम है, जो भाषा नीति की असफलता का संकेत है। अभ्यर्थी सभी 22 क्षेत्रीय भाषाओं को प्रारंभिक परीक्षा में शामिल करने की मांग कर रहे हैं, जो न केवल संवैधानिक समानता सुनिश्चित करेगा, बल्कि राष्ट्रीय सेवा में विविधता को बढ़ावा देगा। यूपीएससी को इस दृष्टिकोण से सीखते हुए, भाषा नीति को अधिक समावेशी बनाना चाहिए—उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय भाषाओं में प्रारंभिक परीक्षा आयोजित करके या अनुवाद सेवाओं को मजबूत करके। यह कदम न केवल दक्षिण भारत की असहमति को संबोधित करेगा, बल्कि हिंदी को एक स्वैच्छिक विकल्प के रूप में स्थापित करेगा, न कि थोपे गए बोझ के रूप में।
निष्कर्षतः, हिंदी दिवस हमें याद दिलाता है कि भाषा एकता का माध्यम है, न कि विभाजन का। हिंदी की प्रगति अन्य भाषाओं के दमन से नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व से संभव है। केंद्र सरकार को दक्षिण भारत की चिंताओं को सुनना चाहिए और एक ऐसी नीति अपनानी चाहिए जो संघवाद का सम्मान करे। यूपीएससी जैसी संस्थाएं भाषाई समानता का प्रतीक बन सकती हैं, यदि वे अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें। अंततः, भारत की ताकत उसकी बहुलता में है—हिंदी को बढ़ावा देते हुए, हमें सभी भाषाओं को समान अवसर प्रदान करने होंगे। तभी सच्ची राष्ट्रीय एकता संभव होगी।
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