भारत–चीन संबंध: सीमा विवाद और वैश्विक व्यापार संतुलन के बीच
भारत–चीन संबंधों का परिदृश्य हमेशा से जटिल और बहुआयामी रहा है, जिसमें सीमा विवाद, आर्थिक सहयोग, और वैश्विक मंचों पर रणनीतिक संतुलन जैसे मुद्दे आपस में गूंथे हुए हैं। 31 अगस्त 2025 को तियानजिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मुलाकात ने इन संबंधों को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। यह लेख इस मुलाकात के प्रमुख आयामों को रुचिकर और समृद्ध बनाते हुए, भारत–चीन संबंधों की गतिशीलता को ऐतिहासिक, भूराजनीतिक, और आर्थिक संदर्भों में विश्लेषित करता है, साथ ही UPSC के दृष्टिकोण से इसके निहितार्थों को और स्पष्ट करता है।
1. सीमा विवाद: शांति के बिना सहयोग अधूरा
भारत–चीन संबंधों की आधारशिला वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर स्थिरता और शांति है। तियानजिन वार्ता में दोनों नेताओं ने “न्यायपूर्ण, यथोचित और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य” सीमा समाधान की आवश्यकता पर बल दिया। विशेष प्रतिनिधियों की वार्ता और सैनिक विमुक्ति (disengagement) की प्रक्रिया को गति देने की प्रतिबद्धता ने यह संदेश दिया कि सीमा पर शांति के बिना कोई भी सहयोग टिकाऊ नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक संदर्भ: 1962 के युद्ध से लेकर डोकलाम (2017) और गलवान (2020) तक, सीमा विवाद ने दोनों देशों के बीच अविश्वास को गहराया है। गलवान संघर्ष के बाद LAC पर सैन्य तैनाती और बुनियादी ढांचे का विकास दोनों पक्षों में रणनीतिक चिंताओं को बढ़ाता रहा है।
UPSC दृष्टिकोण:
- राष्ट्रीय सुरक्षा: LAC पर शांति भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। यह न केवल सैन्य टकराव को रोकता है, बल्कि भारत को अपनी रणनीतिक ऊर्जा आंतरिक विकास और वैश्विक कूटनीति पर केंद्रित करने में सक्षम बनाता है।
- क्षेत्रीय स्थिरता: हिमालयी क्षेत्र में स्थिरता दक्षिण एशिया की भूराजनीतिक स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से जब भारत और चीन दोनों ही क्षेत्रीय शक्तियों के रूप में उभर रहे हैं।
- रणनीतिक स्वायत्तता: भारत की कूटनीति का लक्ष्य है कि वह चीन के साथ संवाद बनाए रखे, लेकिन अपनी संप्रभुता और रणनीतिक हितों से समझौता न करे।
रुचिकर तथ्य: भारत ने LAC के साथ बुनियादी ढांचे (जैसे डीबीबीओ सड़कें और हवाई पट्टियाँ) में भारी निवेश किया है, जिसे चीन रणनीतिक चुनौती के रूप में देखता है। दूसरी ओर, चीन की BRI परियोजनाएँ, जैसे CPEC, भारत की संप्रभुता के लिए चिंता का विषय हैं। तियानजिन में इस तनाव को कम करने की कोशिश एक साहसिक कदम है।
2. “साझेदार, प्रतिद्वंद्वी नहीं”: सहयोग की नई भाषा
मोदी और शी ने इस मुलाकात में जोर दिया कि भारत और चीन को “विकास के साझेदार” के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि प्रतिद्वंद्वी के रूप में। यह दृष्टिकोण वैश्विक व्यापार की अस्थिरता और पश्चिमी संरक्षणवादी नीतियों के दौर में विशेष रूप से प्रासंगिक है।
आर्थिक आयाम:
- वैश्विक व्यापार में सहयोग: वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं (supply chains) में व्यवधान और पश्चिमी देशों के व्यापार शुल्कों ने भारत और चीन को एक-दूसरे के आर्थिक पूरक के रूप में देखने के लिए प्रेरित किया है। चीन की विनिर्माण और दुर्लभ खनिजों में बढ़त भारत के लिए अवसर प्रदान करती है, बशर्ते व्यापार असंतुलन को संबोधित किया जाए।
- निवेश और तकनीक: भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था और स्टार्टअप पारिस्थितिकी (ecosystem) को चीनी निवेश से लाभ हो सकता है, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सावधानी बरतना आवश्यक है।
- धारणा निर्माण: दोनों नेताओं की “सहयोग की भाषा” एशियाई भूराजनीति में शून्य-राशि (zero-sum) दृष्टिकोण को कम करने का प्रयास है। यह भारत के “वसुधैव कुटुंबकम” और चीन के “साझा भविष्य” (Community of Shared Future) जैसे दर्शन को एक मंच पर लाने की कोशिश है।
रुचिकर तथ्य: 2024 में भारत–चीन व्यापार 130 बिलियन डॉलर से अधिक था, लेकिन भारत का व्यापार घाटा 85 बिलियन डॉलर के आसपास रहा। तियानजिन वार्ता में इस असंतुलन को कम करने के लिए ठोस कदमों पर चर्चा हुई, जैसे भारत के फार्मास्यूटिकल्स और आईटी निर्यात को बढ़ावा देना।
UPSC दृष्टिकोण:
- आर्थिक कूटनीति: भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह चीन के साथ व्यापार बढ़ाए, लेकिन अपनी आत्मनिर्भरता (आत्मनिर्भर भारत) को प्राथमिकता दे।
- वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला: भारत की PLI (Production Linked Incentive) योजना और चीन की विनिर्माण क्षमता एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं, बशर्ते भूराजनीतिक तनाव नियंत्रित रहें।
3. ध्रुवीकृत विश्व में भारत की रणनीतिक स्वायत्तता
तियानजिन वार्ता ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को और रेखांकित किया। वैश्विक स्तर पर बढ़ते ध्रुवीकरण, विशेष रूप से अमेरिका–चीन व्यापार युद्ध और पश्चिमी संरक्षणवाद के बीच, भारत ने स्पष्ट किया कि वह किसी भी गुट में शामिल नहीं होगा।
रणनीतिक संतुलन:
- अ-गुटीय परंपरा का नया रूप: भारत की विदेश नीति नेहरूवियन अ-गुटीय सिद्धांतों से प्रेरित है, लेकिन आधुनिक संदर्भ में यह “मल्टी-अलाइनमेंट” (multi-alignment) के रूप में सामने आती है। भारत QUAD और I2U2 जैसे मंचों में सक्रिय है, लेकिन SCO और BRICS में भी अपनी उपस्थिति मजबूत करता है।
- चीन के साथ संवाद, पश्चिम से दूरी नहीं: तियानजिन में चीन के साथ सहयोग का संदेश यह नहीं दर्शाता कि भारत अमेरिका, जापान, या यूरोप से दूरी बना रहा है। यह भारत की “सबका साथ, सबका विकास” की नीति का विस्तार है।
- वैश्विक दक्षिण की आवाज: भारत और चीन दोनों ही वैश्विक दक्षिण के नेतृत्वकर्ता के रूप में उभर रहे हैं। यह पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने का अवसर प्रदान करता है, लेकिन इसके लिए दोनों देशों में आपसी विश्वास आवश्यक है।
रुचिकर तथ्य: भारत ने हाल के वर्षों में अपनी रक्षा और तकनीकी साझेदारी को अमेरिका, रूस, और फ्रांस जैसे देशों के साथ विस्तारित किया है। तियानजिन वार्ता इस संतुलन को बनाए रखने की भारत की क्षमता को दर्शाती है।
UPSC दृष्टिकोण:
- विदेश नीति का लचीलापन: भारत की रणनीतिक स्वायत्तता उसे ध्रुवीकृत विश्व में एक सेतु (bridge) की भूमिका निभाने में सक्षम बनाती है।
- भूराजनीतिक रणनीति: भारत को चीन के साथ सहयोग और QUAD जैसे गठबंधनों में भागीदारी के बीच संतुलन बनाना होगा।
4. बहुपक्षीय मंच: वैश्विक दक्षिण का सशक्तिकरण
तियानजिन वार्ता में SCO और BRICS को वैश्विक दक्षिण की आवाज को मजबूत करने वाले मंचों के रूप में प्रस्तुत किया गया। 2026 में भारत में होने वाले BRICS शिखर सम्मेलन के लिए शी जिनपिंग को निमंत्रण इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
मुख्य बिंदु:
- वैश्विक शासन में सुधार: दोनों देश संयुक्त राष्ट्र, WTO, और अन्य वैश्विक संस्थाओं में सुधार की वकालत करते हैं। यह पश्चिमी वर्चस्व को संतुलित करने की दिशा में एक साझा रणनीति है।
- आर्थिक प्रतिरोध: पश्चिमी व्यापार शुल्कों और प्रतिबंधों के खिलाफ भारत और चीन का सहयोग वैश्विक दक्षिण के हितों को मजबूत कर सकता है।
- क्षेत्रीय सहयोग: SCO के माध्यम से मध्य एशिया में स्थिरता और आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देना दोनों देशों के लिए फायदेमंद हो सकता है।
रुचिकर तथ्य: BRICS देशों का वैश्विक GDP में योगदान 2025 में 32% से अधिक हो गया है, जो G7 के बराबर है। यह वैश्विक आर्थिक शक्ति के पुनर्संतुलन को दर्शाता है।
UPSC दृष्टिकोण:
- वैश्विक शासन: भारत और चीन का सहयोग वैश्विक दक्षिण को एक नई आवाज दे सकता है, लेकिन इसके लिए आपसी विश्वास और समन्वय आवश्यक है।
- क्षेत्रीय गतिशीलता: SCO और BRICS जैसे मंच भारत को क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर प्रदान करते हैं।
5. सॉफ्ट डिप्लोमेसी: जन–संपर्क और कनेक्टिविटी
तियानजिन वार्ता में उड़ानों, वीज़ा सुविधाओं, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया। यह “सॉफ्ट डिप्लोमेसी” दोनों देशों के बीच विश्वास निर्माण का एक प्रभावी माध्यम हो सकता है।
मुख्य पहल:
- पर्यटन और शिक्षा: भारत और चीन के बीच पर्यटन और शैक्षिक आदान-प्रदान बढ़ाने से सांस्कृतिक समझ बढ़ सकती है।
- कनेक्टिविटी: सीधी उड़ानों और डिजिटल कनेक्टिविटी को बढ़ावा देना आर्थिक और सामाजिक संबंधों को मजबूत करेगा।
- सांस्कृतिक विरासत: बौद्ध सर्किट और प्राचीन सिल्क रूट जैसे साझा सांस्कृतिक तत्वों को पुनर्जनन देना दोनों देशों को करीब ला सकता है।
रुचिकर तथ्य: प्राचीन काल में नालंदा विश्वविद्यालय और चीनी यात्री ह्वेनसांग जैसे कनेक्शन भारत–चीन सांस्कृतिक संबंधों की गहराई को दर्शाते हैं। तियानजिन में इस ऐतिहासिक विरासत को पुनर्जनन देने की बात एक प्रतीकात्मक कदम है।
UPSC दृष्टिकोण:
- सॉफ्ट पावर: भारत की सांस्कृतिक कूटनीति (जैसे योग, आयुर्वेद, और बौद्ध विरासत) वैश्विक स्तर पर उसकी छवि को मजबूत करती है।
- विश्वास निर्माण: सॉफ्ट डिप्लोमेसी कठोर भूराजनीतिक तनावों को कम करने में सहायक हो सकती है।
6. चुनौतियाँ: विश्वास और असंतुलन की कसौटी
तियानजिन वार्ता की सकारात्मकता के बावजूद, कई चुनौतियाँ बरकरार हैं:
- विश्वास की कमी: डोकलाम और गलवान जैसे अनुभवों ने दोनों देशों के बीच अविश्वास को गहराया है। LAC पर पूर्ण विमुक्ति और डी-एस्केलेशन ही इसकी असली कसौटी होगी।
- व्यापार असंतुलन: भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा एक दीर्घकालिक चिंता है। भारत को अपने निर्यात (विशेष रूप से फार्मा, आईटी, और कृषि) को बढ़ाने की आवश्यकता है।
- भूराजनीतिक जटिलताएँ:
- पाकिस्तान कारक: चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) भारत की संप्रभुता के लिए चिंता का विषय है।
- हिंद महासागर में सक्रियता: चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति और भारतीय उपमहाद्वीप में उसकी बढ़ती मौजूदगी भारत के लिए चुनौती है।
- BRI और QUAD का टकराव: भारत की BRI में गैर-भागीदारी और QUAD में सक्रियता चीन के साथ तनाव का कारण बनी हुई है।
रुचिकर तथ्य: चीन भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, लेकिन भारत के लिए यह संबंध एक तलवार की धार पर चलने जैसा है—आर्थिक लाभ और रणनीतिक जोखिमों के बीच संतुलन आवश्यक है।
UPSC दृष्टिकोण:
- रणनीतिक चुनौतियाँ: भारत को चीन के साथ सहयोग और अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाना होगा।
- आर्थिक रणनीति: व्यापार असंतुलन को कम करने के लिए भारत को अपनी विनिर्माण क्षमता और निर्यात विविधीकरण पर ध्यान देना होगा।
निष्कर्ष: तियानजिन भावना की असली परीक्षा
तियानजिन वार्ता भारत–चीन संबंधों को पुनर्संतुलित करने की एक महत्वाकांक्षी कोशिश है। यह “तियानजिन भावना” (Tianjin Spirit) न केवल कूटनीतिक बयानबाजी तक सीमित रह सकती है, बल्कि हिमालय की बर्फीली चोटियों से लेकर वैश्विक व्यापार मंचों तक ठोस परिणाम दे सकती है। भारत के लिए यह एक अवसर है कि वह अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को मजबूत करे, आर्थिक असुरक्षाओं को कम करे, और वैश्विक दक्षिण के नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे।
UPSC के लिए निहितार्थ:
- विदेश नीति: भारत की विदेश नीति राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक कूटनीति, और बहुपक्षीय सहयोग पर आधारित है। तियानजिन वार्ता इस नीति की परिपक्वता को दर्शाती है।
- रणनीतिक संतुलन: भारत को चीन के साथ सहयोग और पश्चिमी गठबंधनों के बीच संतुलन बनाना होगा।
- वैश्विक नेतृत्व: BRICS और SCO जैसे मंच भारत को वैश्विक दक्षिण की आवाज को सशक्त करने का अवसर प्रदान करते हैं।
आखिरी विचार: तियानजिन वार्ता ने भारत–चीन संबंधों में एक नया अध्याय शुरू करने की कोशिश की है। लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या दोनों देश अविश्वास की खाई को पाट सकते हैं और सहयोग को ठोस परिणामों में बदल सकते हैं। यह न केवल भारत और चीन, बल्कि पूरे वैश्विक दक्षिण के भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
Comments
Post a Comment