Judicial Independence Under Threat: Retired Judges Condemn Motivated Campaign Against India’s Chief Justice
मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध कथित “प्रेरित अभियान” की पूर्व न्यायाधीशों द्वारा निंदा : एक शैक्षणिक, विश्लेषणात्मक लेख
10 दिसम्बर 2025 को देश की न्याय-व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण और दुर्लभ क्षण दर्ज हुआ, जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों के 44 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर मुख्य न्यायाधीश (CJI) के विरुद्ध चल रहे कथित “प्रेरित अभियान” की कठोर आलोचना की। यह घटना न्यायपालिका के आंतरिक आचरण से अधिक बाहरी दबावों की प्रकृति और न्यायिक स्वतंत्रता पर उसके निहितार्थों को लेकर गहरी चिंता व्यक्त करती है।
1. पृष्ठभूमि और विवाद का उद्भव
रोहिंग्या शरणार्थियों के अवैध प्रवेश, मानवाधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी प्रश्न लंबे समय से भारतीय न्यायालयों के सामने जटिल संवैधानिक चुनौती बने हुए हैं। इसी संदर्भ में एक याचिका की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई कुछ मौखिक टिप्पणियों को विभिन्न राजनीतिक दलों, कुछ संगठनों तथा मीडिया के एक तबके द्वारा “विवादास्पद” बताया गया।
इन टिप्पणियों को उनके संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किया गया और सोशल मीडिया पर अचानक एक ऐसा माहौल तैयार हुआ जिसमें मुख्य न्यायाधीश पर निजी आरोप, भ्रामक सूचनाएँ और चरित्र-हनन जैसे प्रयास दिखाई देने लगे। यह वही क्षण था जिसने 44 पूर्व न्यायाधीशों को हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित किया।
2. पूर्व न्यायाधीशों का सार्वजनिक हस्तक्षेप : संवैधानिक संदेश
भारतीय न्यायिक इतिहास में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा इस प्रकार का सामूहिक वक्तव्य असाधारण माना जाता है।
2018 की प्रेस कॉन्फ्रेंस भी अभूतपूर्व थी, किंतु वह अदालत के आंतरिक प्रशासन संबंधी मुद्दे थी।
वर्तमान बयान का स्वरूप भिन्न है—यह न्यायपालिका के सर्वोच्च पदाधिकारी पर बाहरी ताकतों द्वारा संगठित हमलों के प्रतिरोध में जारी हुआ है।
यह वक्तव्य कई मूलभूत संवैधानिक सिद्धांतों की पुनर्पुष्टि करता है—
- न्यायिक स्वतंत्रता का अपरिहार्य महत्व
- न्यायाधीशों की निष्पक्ष भूमिका को राजनीतिक-मीडिया दबाव से अलग रखने की आवश्यकता
- न्यायालयी टिप्पणियों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने की अनैतिकता
- न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत हमलों के माध्यम से न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति का गंभीर खतरा
3. मौखिक टिप्पणियाँ और मीडिया-राजनीति द्वारा उनका दुरुपयोग
भारतीय न्यायालयों की परंपरा में मौखिक टिप्पणियाँ निर्णय का हिस्सा नहीं मानी जातीं।
वे न्यायाधीशों द्वारा विमर्श को आगे बढ़ाने, कानूनी बिंदुओं की गहराई समझने तथा वकीलों से स्पष्टिकरण प्राप्त करने के लिए की जाती हैं।
इन टिप्पणियों को अंतिम आदेश की तरह प्रस्तुत करना—
- न्याय प्रक्रियाओं की अज्ञानता को दर्शाता है,
- तथा संविधान के अनुच्छेद 121 (सुप्रीम कोर्ट/हाई कोर्ट के न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में चर्चा का निषेध)
और अनुच्छेद 211 (राज्य विधानमंडल में न्यायिक आचरण पर चर्चा का निषेध)
की भावना के विरुद्ध है।
यह प्रवृत्ति न केवल न्यायाधीशों की गरिमा को आहत करती है, बल्कि न्यायपालिका को “लोकप्रिय भावनाओं” के दबाव में लाने की खतरनाक मिसाल भी बनाती है।
4. व्यापक प्रभाव और उभरते प्रश्न
यह पूरा प्रकरण भारतीय न्याय-व्यवस्था के लिए कई व्यापक और गंभीर प्रश्न उठाता है—
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क्या सोशल मीडिया युग में न्यायाधीशों की गरिमा और मानसिक सुरक्षा के लिए एक नई संस्थागत व्यवस्था आवश्यक है?
व्यक्तिगत हमलों और ऑनलाइन उत्पीड़न से बचाने हेतु न्यायाधीशों को संरक्षित करने वाली नीतियाँ वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बन चुकी हैं। -
क्या न्यायिक टिप्पणियों के दुरुपयोग को अवमानना कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए?
न्यायालय की स्वतंत्रता पर हमले यदि संगठित तरीके से हों, तो उन्हें न्यायिक प्रक्रिया के प्रति अपमान माना जा सकता है। -
क्या बाहरी राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करना “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” जैसी चिंताओं को पुनर्जीवित करता है?
लोकतंत्र में यह प्रश्न विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका किस हद तक सार्वजनिक दबावों से स्वतन्त्र रह सकती है।
5. निष्कर्ष : संविधान की रक्षा का सामूहिक आह्वान
44 पूर्व न्यायाधीशों का संयुक्त वक्तव्य किसी व्यक्तिगत न्यायाधीश की प्रतिष्ठा का बचाव मात्र नहीं है।
यह भारतीय लोकतंत्र के उस स्तंभ की रक्षा का आह्वान है जो न्यायिक स्वतंत्रता, निष्पक्षता और संवैधानिक संतुलन का आधार है।
यह प्रकरण हमें स्मरण कराता है कि—
- असहमति लोकतंत्र का आवश्यक अवयव है,
- किंतु वह न्यायपालिका जैसे संस्थान की स्वायत्तता को कमजोर नहीं कर सकती।
यदि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर इस प्रकार के प्रेरित अभियान लगातार चलते रहे, तो दीर्घकाल में संविधान का संतुलन, कानून का शासन और न्यायपालिका की विश्वसनीयता तीनों खतरे में पड़ सकते हैं।
अतः समाज, मीडिया, राजनीतिक दल और नागरिक, सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि न्यायपालिका पर कोई भी दबाव न पड़े और वह उस स्वतंत्रता के साथ कार्य कर सके, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को जीवित रखने की अनिवार्य शर्त है।
With The Hindu Inputs
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