Chandigarh’s Administrative Future: Article 240, Federal Structure Debate and the Emerging Punjab–BJP Crisis
चंडीगढ़ का प्रशासनिक भविष्य: संघीय ढांचे, अनुच्छेद 240 और पंजाब भाजपा के संकट का समग्र विश्लेषण
चंडीगढ़—भारतीय संघीय ढांचे का एक अनूठा उदाहरण—1966 से पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी तथा केंद्रशासित प्रदेश (UT) के रूप में विकसित हुआ है। सुव्यवस्थित नियोजन, उच्च मानव विकास सूचकांक और प्रशासनिक मॉडल के कारण यह न केवल एक आधुनिक शहर का प्रतीक बन चुका है, बल्कि संघ-राज्य संबंधों का सबसे संवेदनशील मुद्दा भी रहा है। 2025 में चंडीगढ़ की प्रशासनिक स्थिति को लेकर केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित संविधान संशोधन और इसके चलते पंजाब भाजपा में उत्पन्न असंतोष ने इस विवाद को पुनः राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला दिया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: चंडीगढ़ विवाद की जड़ें
1. विभाजन और पंजाब का पुनर्गठन (1947–1966)
1947 में लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के बाद पंजाब को एक नई राजधानी की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता के परिणामस्वरूप 1953 में चंडीगढ़ का निर्माण प्रारंभ हुआ। आज़ादी के बाद यह भारत की प्रथम प्रयोगात्मक प्लांड सिटी थी।
1966 में पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के तहत:
- पंजाब और हरियाणा का गठन हुआ,
- चंडीगढ़ को केंद्रशासित प्रदेश घोषित किया गया,
- और इसे दोनों राज्यों की अस्थायी संयुक्त राजधानी बनाया गया।
अस्थायी शब्द पर वर्षों से विवाद कायम रहा है—पंजाब आज भी दावा करता है कि चंडीगढ़ उसके मूल राज्य की राजधानी है जिसे अस्थायी रूप से साझा किया गया था, जबकि हरियाणा अपने लिए अलग राजधानी की अनुपस्थिति में चंडीगढ़ पर बराबर अधिकार की मांग करता रहा है।
केंद्र का नया प्रस्ताव: अनुच्छेद 240 के अंतर्गत परिवर्तन
नवंबर 2025 में केंद्र सरकार ने एक संविधान संशोधन प्रस्तावित किया, जिसके तहत चंडीगढ़ को अनुच्छेद 240(1) के अंतर्गत विशेष श्रेणी का केंद्रशासित प्रदेश बनाने की योजना थी।
अनुच्छेद 240 क्या कहता है?
अनुच्छेद 240 राष्ट्रपति को कुछ केंद्रशासित प्रदेशों के लिए—जहाँ विधान सभा नहीं होती—विशेष नियम बनाने का अधिकार देता है। वर्तमान में यह अंडमान-निकोबार और लक्षद्वीप जैसे UTs पर लागू है।
केंद्र के तर्क
केंद्र के अनुसार इस कदम से:
- प्रशासनिक एकरूपता बढ़ेगी,
- पंजाब–हरियाणा के बीच नियमित प्रशासनिक विवाद समाप्त होंगे,
- शहरी विकास में प्रत्यक्ष केंद्र निवेश संभव होगा,
- सीमा-राज्य होने के कारण सुरक्षा व खुफिया समन्वय मजबूत होगा,
- पंजाब पर कर्मचारियों एवं अधिकारियों के आवास/व्यय का “दीर्घकालिक आर्थिक बोझ” कम होगा।
केंद्र का यह दृष्टिकोण साधन-प्रधान शहरी प्रबंधन पर केंद्र की प्राथमिकता को दर्शाता है।
पंजाब भाजपा का विस्फोट: संघवाद और राजनीति का टकराव
प्रस्ताव के सामने आते ही सबसे तीखी प्रतिक्रिया पंजाब भाजपा से देखने को मिली।
- इसे “पंजाबी अस्मिता पर हमला”,
- “पंजाब के साथ विश्वासघात”,
- और “एकतरफा निर्णय” बताया गया।
यह स्थिति दुर्लभ इसलिए है क्योंकि राज्य इकाई का केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ इस प्रकार खुला विरोध राजनीतिक रूप से असमान्य माना जाता है। पंजाब में भाजपा का आधार कमजोर रहा है, अतः क्षेत्रीय भावनाओं के विरुद्ध कोई भी निर्णय इसके राजनीतिक भविष्य के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता था।
क्यों फूटा असंतोष?
- चंडीगढ़ पंजाबी पहचान का प्रतीक माना जाता रहा है।
- अकाली दल और आप जैसे क्षेत्रीय दल इस मुद्दे को भावनात्मक रूप से भुनाने की तैयारी में थे।
- राज्य इकाई को भय था कि यह निर्णय भाजपा को “दिल्ली का आदेश मानने वाली पार्टी” के रूप में स्थापित कर देगा।
- पंजाब–हरियाणा के जटिल इतिहास के कारण किसी भी एकतरफा कदम के राजनीतिक दुष्परिणाम कई वर्ष टिक सकते हैं।
यह प्रतिक्रिया संघीय राजनीति में केंद्र–राज्य के आंतरिक तनाव का संकेत भी देती है।
संवैधानिक आयाम: क्या चंडीगढ़ की स्थिति बदली जा सकती है?
चंडीगढ़ की प्रशासनिक स्थिति को बदलना मात्र राजनीतिक निर्णय नहीं है; इसके पीछे गहन संवैधानिक जटिलताएँ निहित हैं:
- पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 की मूल भावना में बदलाव करना पड़ेगा।
- दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी होने के कारण किसी भी परिवर्तन से सीधे दो राज्यों के अधिकारों पर प्रभाव पड़ेगा।
- संवैधानिक संशोधन होने पर यह मामला न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है।
- यह संघीय ढांचे की उस परंपरा को चुनौती देता है जिसके अनुसार राज्यों की सहमति के बिना उनके अधिकार क्षेत्रों से जुड़े मामलों में परिवर्तन अस्वीकार्य माना जाता है।
इस प्रकार, भले ही केंद्र प्रशासनिक दक्षता का तर्क दे, लेकिन संवैधानिक और संघीय परंपरा के तहत यह बदलाव सरल नहीं है।
व्यापक विश्लेषण: यह विवाद क्यों महत्वपूर्ण है?
1. संघीय ढांचे की परीक्षा
चंडीगढ़ विवाद केंद्र-राज्य संबंधों में शक्ति-संतुलन की पुनर्समीक्षा का अवसर भी है। भारत का संघीय ढांचा “केंद्राभिमुख” है, परंतु राज्यों की सहमति और संवेदनशीलता लोकतांत्रिक स्थिरता के लिए अनिवार्य मानी जाती है।
2. राजनीतिक संदेश
राज्य इकाई का केंद्रीय नेतृत्व को चुनौती देना दर्शाता है कि
- क्षेत्रीय पहचान,
- स्थानीय राजनीति,
- और चुनावी गणित
कई बार राष्ट्रीय पार्टी की केंद्रीय नीतियों पर भारी पड़ जाते हैं।
3. प्रशासनिक क्षमता बनाम राजनीतिक वैधता
केंद्र का तर्क प्रशासनिक रूप से मजबूत हो सकता है, पर राजनीतिक वैधता राज्यों के विश्वास पर निर्भर करती है। लोकल भावनाओं की उपेक्षा प्रशासनिक तर्क को कमजोर कर सकती है।
आगे का रास्ता: क्या होगा चंडीगढ़ का भविष्य?
हालाँकि विधेयक को औपचारिक रूप से वापस ले लिया गया है, लेकिन संकेत स्पष्ट हैं कि केंद्र चंडीगढ़ के प्रशासनिक पुनर्गठन की अपनी दीर्घकालिक योजना से पीछे नहीं हट रहा है।
भविष्य में तीन संभावित परिदृश्य उभर सकते हैं:
- क्रमिक प्रशासनिक एकीकरण—छोटे-छोटे कदमों में केंद्र चंडीगढ़ की नीतिगत स्वायत्तता बढ़ाए।
- राज्यों से सहमति बनाकर नया मॉडल—एक मध्य-मार्ग, जिसमें पंजाब व हरियाणा को कुछ विशेषाधिकार देकर केंद्र नियंत्रण बढ़ाए।
- पूर्ण केंद्रशासित प्रदेश मॉडल—समय लेकर राजनीतिक सहमति बनाकर अनुच्छेद 240 का विस्तार किया जाए।
जो भी मार्ग अपनाया जाएगा, वह भारत के सहकारी संघवाद की दिशा को प्रभावित करेगा।
निष्कर्ष
चंडीगढ़ का प्रशासनिक भविष्य केवल एक शहर के प्रबंधन का प्रश्न नहीं है, बल्कि भारत के संघीय चरित्र, राज्यीय पहचान, संवैधानिक परंपराओं और समकालीन राजनीति की जटिलताओं का दर्पण है।
2025 की घटना ने दिखाया कि—
- केंद्र की नीतियाँ जब क्षेत्रीय अस्मिता से टकराती हैं, तो प्रतिरोध तीव्र हो सकता है,
- संवैधानिक बदलाव केवल विधायी प्रक्रिया नहीं, बल्कि व्यापक राजनीतिक सहमति का परिणाम होते हैं,
- और संघीय ढांचा केवल संवैधानिक प्रावधानों से नहीं, बल्कि व्यवहारिक राजनीतिक संतुलन से संचालित होता है।
UPSC के संदर्भ में यह प्रकरण प्रशासन, संविधान, संघवाद, राजनीति और नीति-निर्माण के बहुआयामी पहलुओं को एक साथ समझने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।
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