NHRC’s Role in Safeguarding Press Freedom: Analysis of Notices to Kerala, Tripura, and Manipur Governments
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा में योगदान: केरल, त्रिपुरा और मणिपुर सरकारों को जारी नोटिस का विश्लेषण
सार
लोकतांत्रिक शासन में प्रेस स्वतंत्रता केवल सूचना का अधिकार नहीं, बल्कि सत्ता की जवाबदेही और नागरिक स्वतंत्रता की आधारशिला है। जब पत्रकारों पर हमले बढ़ते हैं, तो लोकतंत्र की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसी पृष्ठभूमि में, 22 अक्टूबर 2025 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने केरल, त्रिपुरा और मणिपुर की राज्य सरकारों को तीन पत्रकारों पर हाल में हुए हमलों के संबंध में नोटिस जारी किए। यह कदम न केवल पत्रकारों की सुरक्षा की दिशा में संस्थागत प्रतिक्रिया है, बल्कि मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के जनादेश के अनुरूप राज्य की जिम्मेदारी की भी पुनः पुष्टि करता है।
इस लेख में एनएचआरसी की भूमिका, कानूनी ढांचा, घटनाओं का विश्लेषण और भारत में प्रेस स्वतंत्रता के लिए निहितार्थों पर विस्तृत चर्चा की गई है।
परिचय
भारत का मीडिया जगत अपनी विविधता और लोकतांत्रिक सशक्तता के लिए जाना जाता है, किंतु विगत कुछ वर्षों में यह अभूतपूर्व दबावों और हिंसक आक्रामकता का सामना कर रहा है। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (CPJ) की रिपोर्ट (2024) के अनुसार, भारत पत्रकारों के लिए सबसे असुरक्षित देशों में शामिल रहा है—जहां उत्पीड़न, धमकियां और हमले अब असामान्य नहीं रहे।
इसी क्रम में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का 22 अक्टूबर 2025 का नोटिस तीन राज्यों – केरल, त्रिपुरा और मणिपुर – में पत्रकारों पर हुए हमलों को लेकर जारी किया गया। एनएचआरसी ने इन राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को दो सप्ताह के भीतर विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि आयोग इन घटनाओं को केवल ‘कानूनी उल्लंघन’ नहीं, बल्कि ‘मानवाधिकार हनन’ के रूप में देख रहा है।
यह कदम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन व स्वतंत्रता का अधिकार) के संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है।
घटनाओं का विश्लेषण: तीन राज्यों में प्रेस पर हमले
1. केरल: पर्यावरणीय विरोध और राजनीतिक दबाव
अगस्त 2025 के अंत में, कोच्चि में पर्यावरणीय प्रदूषण के विरोध प्रदर्शन को कवर कर रहे एक पत्रकार पर अज्ञात हमलावरों ने हमला किया। प्रारंभिक रिपोर्टों में संकेत है कि ये हमलावर स्थानीय राजनीतिक समूहों से जुड़े थे। पत्रकार को शारीरिक चोटें आईं और उसे आगे कवरेज रोकने की धमकियां दी गईं।
यह घटना केरल जैसे उच्च साक्षरता वाले राज्य में भी राजनीतिक हितों और स्वतंत्र पत्रकारिता के बीच तनाव की जटिलता को उजागर करती है।
2. त्रिपुरा: जातीय संघर्ष की रिपोर्टिंग और भीड़ हिंसा
सितंबर 2025 में अगरतला में स्वदेशी समुदायों के बीच बढ़ते तनाव को रिपोर्ट कर रहे एक टेलीविजन संवाददाता को भीड़ हिंसा का शिकार होना पड़ा। उस पर पथराव किया गया और गंभीर चोटें आईं।
त्रिपुरा के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में यह घटना दर्शाती है कि स्थानीय विवादों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार कैसे भीड़ की भावनाओं का शिकार बन जाते हैं।
3. मणिपुर: संघर्ष क्षेत्र में फोटोजर्नलिस्ट पर हमला
अक्टूबर 2025 की शुरुआत में इंफाल में जातीय संघर्ष को कवर कर रहे एक फ्रीलांस फोटोग्राफर पर सशस्त्र व्यक्तियों ने हमला किया। यह घटना उस निरंतर अस्थिरता को दर्शाती है, जो मणिपुर में 2023 से चली आ रही सामुदायिक हिंसा के कारण बनी हुई है।
यहां पत्रकारिता लगभग युद्ध-क्षेत्र के समान हो गई है, जहां सच सामने लाने का प्रयास स्वयं जीवन के लिए खतरा बन जाता है।
इन तीनों घटनाओं में समानता यह है कि—
- हमले राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्यों से प्रेरित थे,
- पुलिस की प्रतिक्रिया प्रारंभिक रूप से अपर्याप्त रही, और
- पीड़ित पत्रकारों को संस्थागत सुरक्षा का अभाव झेलना पड़ा।
एनएचआरसी का हस्तक्षेप: कानूनी और प्रक्रियात्मक दृष्टि
कानूनी आधार
मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 12 और 13 के तहत एनएचआरसी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी भी सार्वजनिक अधिकारी या संस्था द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन या उपेक्षा के मामलों में स्वत: संज्ञान ले सके।
इस प्रावधान के अंतर्गत एनएचआरसी ने तीनों राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। साथ ही, उसने पुलिस की कार्रवाई, प्राथमिकी की स्थिति और पीड़ितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उठाए गए कदमों की विस्तृत रिपोर्ट भी मांगी।
प्रक्रियात्मक नवाचार
एनएचआरसी ने इस बार दो सप्ताह की सख्त समयसीमा तय की है। यह समयसीमा आयोग की कार्यप्रणाली में नई सक्रियता को दर्शाती है, क्योंकि पूर्व में रिपोर्ट प्रस्तुत करने में महीनों की देरी होती रही है।
इस कदम का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि प्रेस पर हमले को केवल "कानूनी मामला" नहीं, बल्कि "मानवाधिकार उल्लंघन" माना जाएगा।
सीमाएं और चुनौतियां
हालांकि एनएचआरसी की सिफारिशें सलाहकारी (Advisory) प्रकृति की हैं, इसलिए राज्य सरकारों पर इनका कानूनी दायित्व नहीं बनता। आयोग के पिछले आंकड़ों से पता चलता है कि मीडिया से संबंधित शिकायतों में 70% मामलों में नोटिस तो जारी किए जाते हैं, लेकिन केवल 20% मामलों में ठोस कार्रवाई हो पाती है।
यह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि जब तक आयोग को अर्ध-न्यायिक प्रवर्तन शक्ति नहीं दी जाती, तब तक इसके हस्तक्षेप सीमित प्रभाव वाले रहेंगे।
भारत में प्रेस स्वतंत्रता के लिए निहितार्थ
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संविधानिक मूल्यों की पुनर्पुष्टि
एनएचआरसी का यह कदम अनुच्छेद 19(1)(क) और अनुच्छेद 21 की पुनः व्याख्या है, जिसमें "जीवन का अधिकार" केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति और सूचना के अधिकार तक विस्तृत है। -
संघीय असमानता की चुनौती
भारत का संघीय ढांचा कई बार मानवाधिकार प्रवर्तन को असमान बना देता है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में प्रशासनिक कमजोरी और राजनीतिक अस्थिरता के कारण एनएचआरसी के निर्देशों का पालन कठिन हो जाता है। -
पत्रकारिता पर ठंडा प्रभाव (Chilling Effect)
हमले केवल व्यक्तिगत हिंसा नहीं, बल्कि सामूहिक चुप्पी का कारण बनते हैं। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) की 2025 की रिपोर्ट बताती है कि मणिपुर में संघर्ष क्षेत्र कवरेज में 15% की कमी आई है, जो लोकतंत्र की पारदर्शिता को सीधा नुकसान है। -
लिंग और सामाजिक हाशिए की दृष्टि
पीड़ित पत्रकारों में से दो अल्पसंख्यक या हाशिए के समुदायों से हैं। यह इंगित करता है कि मीडिया में भी संरचनात्मक असमानताएं मौजूद हैं, जिनका असर सुरक्षा और न्याय तक पहुंच पर पड़ता है।
आगे की राह: नीतिगत सुधार और संस्थागत जिम्मेदारी
- मीडिया सुरक्षा कानून की आवश्यकता: भारत में अभी तक पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई अलग कानून नहीं है। यह समय है कि केंद्र और राज्य सरकारें पत्रकार सुरक्षा विधेयक जैसे ठोस कदम उठाएं।
- पुलिस प्रशिक्षण और जवाबदेही: पुलिस प्रशिक्षण में प्रेस स्वतंत्रता और मानवाधिकार संरक्षण को शामिल किया जाना चाहिए ताकि रिपोर्टिंग के दौरान पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
- एनएचआरसी की शक्तियों का विस्तार: संसद को आयोग को अर्ध-न्यायिक प्रवर्तन अधिकार देने पर विचार करना चाहिए ताकि इसकी सिफारिशें बाध्यकारी बन सकें।
- सिविल सोसाइटी और मीडिया का सहयोग: स्वतंत्र संस्थानों, पत्रकार संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आयोग के प्रयासों में सहभागी बनाना चाहिए ताकि निगरानी और पारदर्शिता बढ़ सके।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा केरल, त्रिपुरा और मणिपुर सरकारों को नोटिस जारी करना केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता—की रक्षा का प्रयास है।
यह कदम यह संदेश देता है कि मानवाधिकारों की सुरक्षा का दायित्व केवल राज्य का नहीं, बल्कि संस्थागत और सामाजिक साझेदारी का विषय है।
यदि इन हस्तक्षेपों का अनुसरण ठोस नीतिगत सुधारों से किया जाए, तो यह भारतीय लोकतंत्र में प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक मजबूत उदाहरण बन सकता है।
आखिरकार, स्वतंत्र प्रेस ही नागरिक चेतना का आधार है, और उसका संरक्षण मानवाधिकारों की रक्षा का सबसे सशक्त रूप है।
संदर्भ
- कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (2024), Attacks on the Press: India Report.
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (2024), Annual Report 2023–24.
- रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (2025), World Press Freedom Index – India Chapter.
- मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 (संशोधित 2019)।
- भारत का संविधान – अनुच्छेद 19(1)(क), 21।
- फ्रेडमैन, एस. (2018). Human Rights Transformed: Positive Rights and Duties. Oxford University Press.
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