Modi's Virtual ASEAN 2025 Attendance: Diwali Excuse or Trump Avoidance? Analysis of India’s Diplomacy
2025 आसियान शिखर सम्मेलन में भारत की आभासी कूटनीति: रणनीतिक सावधानी या कूटनीतिक चूक?
प्रस्तावना
26–27 अक्टूबर 2025 को कुआलालंपुर में होने जा रहा 47वां आसियान शिखर सम्मेलन इंडो-पैसिफिक की उभरती शक्ति-संतुलन रेखाओं को आकार देने वाला एक महत्वपूर्ण आयोजन माना जा रहा है।
इस मंच पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग, जापान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम और सिंगापुर जैसे देशों के शीर्ष नेता भौतिक रूप से उपस्थित रहने वाले हैं, जबकि प्रारंभिक संकेतों के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संभवतः आभासी माध्यम से भाग लेंगे — “दीवाली और घरेलू कार्यक्रमों” के कारण।
यह निर्णय भारत की Act East Policy की सक्रियता पर बहस को जन्म देता है। सवाल यह है कि क्या यह रणनीतिक विवेक (Strategic Prudence) का प्रतीक होगा या भारत की क्षेत्रीय उपस्थिति में कमी का संकेत?
एक्ट ईस्ट नीति और आसियान का बढ़ता महत्व
भारत के लिए आसियान केवल व्यापारिक भागीदारों का समूह नहीं, बल्कि इंडो-पैसिफिक में रणनीतिक स्थिरता का आधार स्तंभ है।
वर्ष 2024-25 में भारत-आसियान व्यापार 130 अरब डॉलर के स्तर तक पहुँच चुका है, जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया भारत की सॉफ्ट पावर विस्तार नीति का प्रमुख केंद्र बना हुआ है।
2014 में आरंभ की गई Act East Policy ने भारत को न केवल आर्थिक बल्कि भू-राजनीतिक प्रासंगिकता प्रदान की।
इसके तहत भारत ने चीन की Belt and Road Initiative (BRI) के प्रभाव को संतुलित करते हुए “नियम-आधारित, स्वतंत्र और समावेशी इंडो-पैसिफिक” के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया।
किन्तु 2025 का यह शिखर सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब अमेरिका, चीन और जापान—तीनों ही—अपने-अपने रणनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण रूप से तैयार हैं। ऐसे में भारत की शीर्ष नेतृत्व स्तर पर अनुपस्थिति, उसकी Act East Policy की दिशा और दृढ़ता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर सकती है।
संभावित अनुपस्थिति: घरेलू प्राथमिकता या रणनीतिक संयम?
यदि प्रधानमंत्री मोदी वास्तव में आभासी रूप से शिखर सम्मेलन में भाग लेते हैं, तो यह निर्णय दो प्रकार से देखा जाएगा —
एक ओर, यह घरेलू व्यस्तताओं (दीवाली, बिहार विधानसभा चुनाव) से जुड़ा स्वाभाविक विकल्प माना जा सकता है;
दूसरी ओर, इसे एक रणनीतिक संयम (Calculated Restraint) के रूप में भी देखा जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि अगस्त 2025 में अमेरिकी प्रशासन द्वारा भारत के निर्यात पर 50% तक टैरिफ बढ़ाने और रूसी तेल खरीद पर प्रतिबंधों से दोनों देशों के रिश्ते में असहजता आई है।
ऐसे में मोदी की प्रत्यक्ष उपस्थिति किसी सार्वजनिक मंच पर ट्रम्प प्रशासन के साथ असहज संवाद या मीडिया विवाद का कारण बन सकती है।
ट्रम्प की “कूटनीति को तमाशा बनाने” वाली शैली — जहाँ संवाद कैमरों के सामने होता है — से भारत संभवतः दूरी बनाना चाहेगा।
इस दृष्टि से, आभासी उपस्थिति भारत के लिए अल्पकालिक जोखिम प्रबंधन और रणनीतिक यथार्थवाद (Realism) का परिचायक बन सकती है।
संभावित परिणाम: कूटनीतिक शून्य और चीन की बढ़त
हालाँकि यह रणनीतिक सावधानी भारत को तात्कालिक विवादों से दूर रख सकती है, परंतु यह एक कूटनीतिक रिक्तता (Diplomatic Vacuum) भी पैदा कर सकती है।
ऐसे परिदृश्य में चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग की सक्रिय उपस्थिति बीजिंग को क्षेत्रीय नेतृत्व के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने का अवसर देगी।
$900 अरब डॉलर के आसियान-चीन व्यापार और BRI के तहत $100 अरब डॉलर से अधिक निवेश के बल पर चीन पहले से ही कंबोडिया, लाओस और म्यांमार जैसे देशों में गहरी आर्थिक जड़ें जमा चुका है।
इसके विपरीत भारत का क्षेत्रीय निवेश $25 अरब डॉलर से आगे नहीं बढ़ पाया है।
यदि भारत शीर्ष स्तर पर अनुपस्थित रहता है, तो चीन को न केवल कथात्मक नेतृत्व (Narrative Leadership) बल्कि प्रतीकात्मक प्रभुत्व का लाभ मिल सकता है — जो आसियान देशों की नीतिगत झुकाव को प्रभावित करेगा।
अमेरिका, भारत और इंडो-पैसिफिक का समीकरण
ट्रम्प प्रशासन की नीति अब अधिक मीडिया-प्रधान और अवसरवादी कूटनीति का रूप ले चुकी है।
शिखर सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा दक्षिण चीन सागर, व्यापार संतुलन और रूस-भारत संबंधों पर आक्रामक बयान संभव हैं।
ऐसे में भारत की आभासी उपस्थिति उसे इन सार्वजनिक विवादों से बचने का अवसर देगी, जिससे उसकी रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) सुरक्षित रह सकती है।
परंतु दीर्घकालिक दृष्टि से यह रुख भारत के “सक्रिय नेतृत्व” की छवि को कमजोर कर सकता है।
क्योंकि Act East Policy का मूल दर्शन ही है — “उपस्थिति से प्रभाव निर्माण।”
आसियान में भारत की प्रासंगिकता और संभावित चुनौतियाँ
भारत के लिए आसियान के कई देश रणनीतिक दृष्टि से अनिवार्य हैं —
- वियतनाम: दक्षिण चीन सागर में सामरिक सहयोगी।
- सिंगापुर: रक्षा, डिजिटल तकनीक और वित्तीय साझेदारी का केंद्र।
- इंडोनेशिया: हिंद महासागर क्षेत्र में सामुद्रिक भागीदार।
ऐसे में शीर्ष नेतृत्व की अनुपस्थिति इन साझेदारियों के प्रतीकात्मक प्रभाव को कम कर सकती है।
हालाँकि विदेश मंत्री एस. जयशंकर की उपस्थिति से नीतिगत निरंतरता बनी रह सकती है, किंतु अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राजनीतिक उपस्थिति ही आश्वासन का आधार होती है।
रॉबर्ट केहोने के शब्दों में — “विश्वास केवल संस्थाओं से नहीं, बल्कि सहभागिता से बनता है।”
और यही सहभागिता इस समय भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक आवश्यकता प्रतीत होती है।
तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य: आसियान 2025 की शक्ति गतिशीलता
भारत
- व्यापार: लगभग $130 अरब डॉलर
- संभावित भागीदारी: प्रधानमंत्री की आभासी उपस्थिति
- अवसर: डिजिटल कूटनीति और जयशंकर की सक्रिय भूमिका
- चुनौती: राजनीतिक दृश्यता और क्षेत्रीय प्रभाव में कमी
अमेरिका (ट्रम्प प्रशासन)
- $50 अरब के व्यापार जोखिम के बावजूद प्रत्यक्ष उपस्थिति
- अवसर: मीडिया नियंत्रण और एजेंडा सेटिंग
- जोखिम: नीति अस्थिरता और सहयोगियों का अविश्वास
चीन (ली कियांग)
- $900 अरब का व्यापार और FTA 3.0 के जरिये आर्थिक नेतृत्व
- अवसर: क्षेत्रीय प्रभुत्व और निवेश विस्तार
- जोखिम: अति-निर्भरता और भू-राजनीतिक प्रतिक्रिया
➡️ इस तुलना से स्पष्ट है कि आसियान 2025 में “उपस्थिति ही प्रभाव” का प्रतीक बनेगी — और भारत की आभासी भागीदारी उस कसौटी पर सीमित प्रतीत हो सकती है।
भविष्य की दिशा: हाइब्रिड कूटनीति का युग
आगामी समय में भारत की विदेश नीति को हाइब्रिड कूटनीति (Hybrid Diplomacy) की दिशा में विकसित होना होगा — जहाँ डिजिटल दक्षता और भौतिक सहभागिता दोनों समान रूप से महत्व रखते हों।
भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर (IMEC), डिजिटल कनेक्टिविटी परियोजनाएँ, और रक्षा सहयोग के नए तंत्र इस नीति की ठोस दिशा बन सकते हैं।
परंतु Act East Policy की वास्तविक सार्थकता तभी बनी रह सकती है, जब भारत केवल आर्थिक साझेदारी तक सीमित न रहे, बल्कि राजनीतिक दृश्यता और नेतृत्व की उपस्थिति को भी प्राथमिकता दे।
क्योंकि, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर “अनुपस्थिति भी एक संदेश देती है” — और कभी-कभी वह संदेश नीति की मंशा को कमजोर कर देता है।
निष्कर्ष
यदि प्रधानमंत्री मोदी 2025 के आसियान शिखर सम्मेलन में आभासी रूप से भाग लेते हैं, तो यह निर्णय अल्पकालिक दृष्टि से रणनीतिक विवेक का उदाहरण हो सकता है — परंतु दीर्घकालिक रूप में यह भारत की Act East रणनीति के प्रभाव को सीमित कर सकता है।
21वीं सदी की कूटनीति अब केवल वक्तव्यों या आभासी सहभागिता तक सीमित नहीं रही; यह उपस्थिति, प्रतीक और प्रभाव की राजनीति बन चुकी है।
भारत को अब “बहानों से परे सक्रिय कूटनीति” की दिशा में बढ़ना होगा — जहाँ नीति, नेतृत्व और उपस्थिति तीनों एक साथ दिखाई दें।
अन्यथा, इंडो-पैसिफिक की शक्ति प्रतिस्पर्धा में भारत की आवाज़ भले ही सुनी जाए, पर उसका प्रभाव धीरे-धीरे क्षीण हो सकता है।
संदर्भ: ब्लूमबर्ग, द हिंदू, इंडिया टुडे, फाइनेंशियल एक्सप्रेस, रॉयटर्स, पॉलिटिको (अक्टूबर 2025)
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