Custodial Deaths in Rajasthan: Police Reforms, Human Rights, and Administrative Accountability | UPSC Perspective
राजस्थान में हिरासत में मौतें: लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए चेतावनी की घंटी
अगस्त 2023 से अगस्त 2025 के बीच राजस्थान में पुलिस हिरासत में 20 मौतें दर्ज की गईं। यह केवल एक संख्या नहीं, बल्कि उस व्यवस्था पर सवाल है जो नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। राज्य विधानसभा में कांग्रेस विधायक रफीक खान के सवाल पर प्रस्तुत रिपोर्ट ने पुलिस तंत्र, मानवाधिकार और शासन की संवेदनशीलता पर गहरी बहस छेड़ दी है। यह सवाल अब केवल राजस्थान का नहीं, बल्कि पूरे देश की लोकतांत्रिक विश्वसनीयता से जुड़ा हुआ है।
रिपोर्ट का संकेत: आंकड़ों के पीछे की तस्वीर
रिपोर्ट में बताया गया:
- 6 मौतें आत्महत्या से जुड़ीं।
- 12 मौतें स्वास्थ्य समस्याओं, जिनमें 6 हृदयाघात से हुईं।
- 2 मौतें अस्पष्ट कारणों से हुईं।
ये तथ्य दर्शाते हैं कि पुलिस लॉकअप में बंद लोगों के लिए मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की स्थिति अत्यंत दयनीय है। आत्महत्या यह इंगित करती है कि हिरासत एक मनोवैज्ञानिक यातना का स्थल बन चुकी है, जबकि स्वास्थ्य संबंधी मौतें यह दर्शाती हैं कि बुनियादी चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
न्यायपालिका और मानवाधिकार आयोग की भूमिका
भारतीय न्यायपालिका ने बार-बार कहा है कि पुलिस हिरासत में मृत्यु राज्य की जिम्मेदारी होती है।
- डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) में सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश दिए थे।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने भी हर हिरासत मृत्यु की मजिस्ट्रियल जाँच और 24 घंटे के भीतर रिपोर्टिंग अनिवार्य की है।
फिर सवाल यह है कि क्या राजस्थान में इन दिशानिर्देशों का पालन हुआ? यदि नहीं, तो यह न केवल प्रशासनिक विफलता है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों का भी उल्लंघन है।
तुलनात्मक दृष्टिकोण: भारत बनाम विश्व
संयुक्त राष्ट्र का मैंडेला नियम (Mandela Rules, 2015) स्पष्ट करता है कि कैदियों और हिरासत में बंद व्यक्तियों को भी जीवन और स्वास्थ्य के सभी मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं। पश्चिमी देशों में पुलिस हिरासत में आत्महत्या रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग, स्वास्थ्य स्क्रीनिंग और निगरानी तंत्र अनिवार्य हैं। भारत में इन मानकों का अभाव यह दिखाता है कि सुधार की राह लंबी है।
प्रशासनिक और नैतिक चुनौतियाँ
- पारदर्शिता की कमी – हिरासत मृत्यु के अधिकांश मामलों में पुलिस विभाग ही जाँच करता है, जिससे निष्पक्षता पर संदेह रहता है।
- मानव गरिमा का उल्लंघन – संविधान का अनुच्छेद 21 "जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार" हर नागरिक को देता है। हिरासत में मौतें इस अधिकार का सीधा उल्लंघन हैं।
- नैतिक दृष्टिकोण – क्या राज्य अपने सबसे कमजोर नागरिक—हिरासत में बंद आरोपी—की रक्षा करने में असफल हो रहा है? क्या दंडात्मक व्यवस्था करुणा और न्याय से रहित हो चुकी है?
यूपीएससी दृष्टिकोण से प्रासंगिकता
- GS-2 (शासन और न्यायपालिका) – पुलिस सुधार, मानवाधिकार आयोग की भूमिका, प्रशासनिक जवाबदेही।
- GS-3 (आंतरिक सुरक्षा) – पुलिस व्यवस्था में विश्वास की कमी का सामाजिक प्रभाव।
- GS-4 (नैतिकता और आचरण) – करुणा, पारदर्शिता और संवेदनशीलता का अभाव।
- निबंध और साक्षात्कार – लोकतंत्र, मानवाधिकार और राज्य की जवाबदेही पर व्यापक विमर्श।
आगे का रास्ता: सुधार की दिशा में कदम
- स्वतंत्र निगरानी निकाय – हर थाने और लॉकअप की निगरानी के लिए लोकपाल या नागरिक समाज से जुड़े निकाय बनाए जाएँ।
- मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान – हिरासत में बंद व्यक्तियों के लिए काउंसलिंग और मनोवैज्ञानिक सहायता की व्यवस्था।
- स्वास्थ्य और तकनीक – लॉकअप में नियमित स्वास्थ्य जाँच और 24x7 चिकित्सा उपलब्धता, सीसीटीवी निगरानी का अनिवार्य प्रावधान।
- पुलिस प्रशिक्षण – पुलिस को केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए नहीं, बल्कि मानवाधिकार-संवेदी दृष्टिकोण से प्रशिक्षित करना।
- जवाबदेही की संस्कृति – हिरासत मृत्यु के हर मामले में उच्च अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाए और दोषियों पर सख्त कार्रवाई हो।
निष्कर्ष
राजस्थान की रिपोर्ट चेतावनी है कि भारत की लोकतांत्रिक और न्याय व्यवस्था में अभी गहरी खामियाँ हैं। हिरासत में मौतें केवल आंकड़े नहीं, बल्कि यह उस राज्य की आत्मा पर प्रश्नचिह्न हैं जो खुद को कल्याणकारी बताता है। यूपीएससी दृष्टिकोण से यह केवल एक प्रशासनिक या कानूनी प्रश्न नहीं, बल्कि शासन और नैतिकता का मूल प्रश्न है। भावी प्रशासकों को यह समझना होगा कि लोकतंत्र की असली परीक्षा उस समाज से होती है जो सबसे कमजोर और असुरक्षित व्यक्ति के जीवन की रक्षा करता है।
विचारणीय प्रश्न: क्या भारत को हिरासत सुधार के लिए एक राष्ट्रीय स्तर पर बाध्यकारी कानून बनाना चाहिए, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य, चिकित्सा सुविधाएँ और पारदर्शिता अनिवार्य हों?
Comments
Post a Comment