Maratha Quota Deadlock: Between Social Justice and Electoral Politics
(UPSC के दृष्टिकोण से विश्लेषणात्मक लेख)
प्रस्तावना
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की माँग को लेकर चल रहा आंदोलन एक बार फिर राजनीतिक विमर्श के केंद्र में है। मुंबई के आज़ाद मैदान में मराठा नेता मनोज जरांगे पाटिल की भूख हड़ताल ने सामाजिक न्याय, आरक्षण व्यवस्था और राजनीति के अंतर्संबंधों पर गहरी बहस छेड़ दी है। तीसरे दिन में प्रवेश कर चुके इस आंदोलन ने न केवल राज्य सरकार की नीतिगत दुविधाओं को उजागर किया है बल्कि आगामी चुनावों की पृष्ठभूमि में मराठा–ओबीसी समीकरण को भी चुनौती दी है।
मुद्दे की पृष्ठभूमि
- मराठा समुदाय लंबे समय से शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की माँग करता रहा है।
- जरांगे की प्रमुख माँग है कि मराठाओं को कुनबी जाति के रूप में ओबीसी श्रेणी में मान्यता दी जाए और 10% आरक्षण प्रदान किया जाए।
- 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने मराठाओं के लिए आरक्षण का प्रयास किया था, किंतु 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने 50% की सीमा का हवाला देते हुए इसे निरस्त कर दिया।
वर्तमान घटनाक्रम
- जरांगे की भूख हड़ताल ने महाराष्ट्र की राजनीति में गतिरोध की स्थिति पैदा कर दी है।
- सरकार की ओर से वार्ता हेतु सेवानिवृत्त न्यायाधीश संदीप शिंदे के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल भेजा गया, परंतु आंदोलनकारी इसे ठुकरा चुके हैं।
- इस आंदोलन को विपक्षी दलों और सोशल मीडिया से समर्थन मिला है, वहीं ओबीसी संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं।
- नतीजतन, राज्य में सामाजिक ध्रुवीकरण की स्थिति उभर रही है।
विश्लेषण UPSC दृष्टिकोण से
1. सामाजिक न्याय का प्रश्न
- संविधान की दृष्टि से आरक्षण का उद्देश्य “समान अवसर प्रदान करना” है।
- मराठा एक प्रमुख कृषक व भूमि-स्वामी जाति रही है, जिसे पारंपरिक रूप से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं माना जाता।
- यदि मराठाओं को ओबीसी कोटे में शामिल किया जाता है, तो वास्तविक रूप से पिछड़े वर्गों के हिस्से में आरक्षण का क्षरण होगा।
2. संवैधानिक और न्यायिक आयाम
- सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% से अधिक नहीं हो सकती (Indra Sawhney Case, 1992)।
- हालांकि 103वां संविधान संशोधन (EWS आरक्षण) इस सीमा को लांघ चुका है, किंतु उसका आधार "आर्थिक कमजोरी" है, जातिगत पहचान नहीं।
- मराठा आरक्षण का सवाल इस बात को लेकर जटिल है कि क्या इसे न्यायिक कसौटी पर टिकाया जा सकता है।
3. राजनीतिक पहलू
- महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा समाज का निर्णायक प्रभाव रहा है।
- जरांगे का आंदोलन आगामी स्थानीय निकाय चुनावों और 2029 के आम चुनावों की पृष्ठभूमि में सत्ता संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
- ओबीसी–मराठा समीकरण में दरार से बहुजन राजनीति और क्षेत्रीय दलों की रणनीतियाँ बदल सकती हैं।
4. नैतिक एवं प्रशासनिक विमर्श
- प्रशासनिक दृष्टि से यह प्रश्न है कि क्या सरकार को आंदोलन के दबाव में आरक्षण नीतियाँ बदलनी चाहिए, या दीर्घकालीन डेटा-आधारित नीति अपनानी चाहिए।
- नैतिक रूप से जरांगे का आंदोलन सामाजिक न्याय की माँग है, परंतु यह अन्य वंचित समुदायों के अधिकारों से टकराव भी पैदा कर सकता है।
आगे की राह (Way Forward)
- समग्र जातिगत जनगणना : आरक्षण की नीति तथ्यों और आँकड़ों पर आधारित हो, न कि राजनीतिक दबाव पर।
- आर्थिक मानदंड पर आरक्षण का विस्तार : सामाजिक व शैक्षिक पिछड़ेपन के साथ-साथ आर्थिक आधार को अधिक महत्व दिया जाए।
- संवाद और मध्यस्थता : सरकार को आंदोलनकारियों और ओबीसी संगठनों के बीच संवाद का मंच तैयार करना चाहिए।
- दीर्घकालीन सामाजिक नीति : शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को मूल स्तर पर कम किया जाए।
निष्कर्ष
मनोज जरांगे की भूख हड़ताल हमें यह याद दिलाती है कि भारत की आरक्षण व्यवस्था आज भी वर्गीय असमानताओं और राजनीतिक समीकरणों के बीच झूल रही है। सरकार यदि केवल अल्पकालिक राजनीतिक दबाव में निर्णय लेती है तो यह न तो सामाजिक न्याय की कसौटी पर खरा उतरेगा और न ही संवैधानिक रूप से टिकाऊ होगा। आवश्यकता है कि आरक्षण पर बहस को भावनाओं और राजनीति से आगे ले जाकर तथ्यपरक, न्यायसंगत और संतुलित नीति की दिशा में आगे बढ़ा जाए।
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