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Cracking UPSC Mains Through Current Affairs Analysis

करंट अफेयर्स में छिपे UPSC मेन्स के संभावित प्रश्न प्रस्तावना UPSC सिविल सेवा परीक्षा केवल तथ्यों का संग्रह नहीं है, बल्कि सोचने, समझने और विश्लेषण करने की क्षमता की परीक्षा है। प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) तथ्यों और अवधारणाओं पर केंद्रित होती है, लेकिन मुख्य परीक्षा (Mains) विश्लेषणात्मक क्षमता, उत्तर लेखन कौशल और समसामयिक घटनाओं की समझ को परखती है। यही कारण है कि  करंट अफेयर्स UPSC मेन्स की आत्मा माने जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि UPSC सीधे समाचारों से प्रश्न नहीं पूछता, बल्कि घटनाओं के पीछे छिपे गहरे मुद्दों, नीतिगत पहलुओं और नैतिक दुविधाओं को प्रश्न में बदल देता है। उदाहरण के लिए, अगर अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु परिवर्तन की चर्चा हो रही है, तो UPSC प्रश्न पूछ सकता है —  “भारत की जलवायु नीति घरेलू प्राथमिकताओं और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच किस प्रकार संतुलन स्थापित करती है?” यानी, हर करंट इवेंट UPSC मेन्स के लिए एक संभावित प्रश्न छुपाए बैठा है। इस लेख में हम देखेंगे कि हाल के करंट अफेयर्स किन-किन तरीकों से UPSC मेन्स के प्रश्न बन सकते हैं, और विद्यार्थी इन्हें कैसे अपनी तै...

Evolution of Movements in India: Before and After British Rule – A Historical, Social and Political Analysis

“भारत में आंदोलनों का विकास: अंग्रेजों के आगमन से पहले और बाद – एक ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषण”


परिचय: औपनिवेशिक भारत से पहले और बाद के आंदोलनों की समझ

भारत का इतिहास आंदोलनों, विद्रोहों और सामाजिक परिवर्तन की एक लंबी परंपरा से भरा है। यह धारणा कि आंदोलन केवल अंग्रेजों के आने के बाद ही शुरू हुए, आंशिक रूप से सही है। वास्तव में, औपनिवेशिक शासन ने आंदोलनों को नया स्वरूप और राष्ट्रीय चरित्र दिया, लेकिन उनका बीज भारतीय समाज में पहले से मौजूद था। मुग़लकालीन विद्रोह, भक्ति-सूफी आंदोलन, क्षेत्रीय स्वायत्तता के संघर्ष और किसानों-जनजातियों के विद्रोह इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में असंतोष और प्रतिरोध की गहरी जड़ें थीं।

इस लेख में हम अंग्रेजों के आगमन से पहले और बाद के आंदोलनों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे और यह समझेंगे कि कैसे औपनिवेशिक शासन ने इन आंदोलनों को आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलनों में बदल दिया।


1. अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में आंदोलनों की पृष्ठभूमि

औपनिवेशिक शासन से पूर्व भारतीय समाज अनेक साम्राज्यों, रियासतों और सामंती ढाँचों में बंटा हुआ था। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा न होने के बावजूद समाज में शोषण, धार्मिक असमानता और करों के बोझ के कारण लोग समय-समय पर विद्रोह करते रहे। इन आंदोलनों की मुख्य विशेषताएँ थीं – स्थानीयता, विखंडन और नेतृत्व का सामंती/धार्मिक चरित्र।

(क) किसान और जनजातीय विद्रोह

  • जाट विद्रोह (17वीं सदी): औरंगज़ेब के भारी करों और धार्मिक नीतियों के विरोध में मथुरा और भरतपुर क्षेत्र के जाट किसानों ने विद्रोह किया।
  • सतनामी विद्रोह (1672): मध्य भारत में सतनामी संप्रदाय ने मुग़ल प्रशासन के भ्रष्टाचार और अत्याचार के खिलाफ हथियार उठाए।
  • आदिवासी विद्रोह: मुंडा, संथाल और भील जैसी जनजातियाँ स्थानीय जमींदारों और बाहरी आक्रांताओं के शोषण के खिलाफ विद्रोह करती थीं।

ये विद्रोह दिखाते हैं कि किसान और जनजातियाँ शोषण के खिलाफ सजग थीं, भले ही वे संगठित न हों।

(ख) क्षेत्रीय और सामंती विद्रोह

  • मराठा विद्रोह: शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों ने मुग़ल प्रभुत्व को चुनौती देकर एक स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की।
  • सिख विद्रोह: गुरु गोबिंद सिंह और उनके बाद के नेताओं ने मुग़ल साम्राज्य के खिलाफ संगठित प्रतिरोध खड़ा किया।
  • राजपूत और अन्य सामंती संघर्ष: मुग़ल साम्राज्य की कमजोरी के साथ-साथ क्षेत्रीय शासक स्वायत्तता के लिए विद्रोह करते रहे।

(ग) धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन

  • भक्ति आंदोलन: संत कबीर, गुरुनानक, तुलसीदास जैसे संतों ने जातिवाद और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ विचार दिए।
  • सूफी आंदोलन: सूफी संतों ने धार्मिक समरसता और समानता पर जोर दिया।

इन आंदोलनों का राजनीतिक असर भले सीमित रहा हो, लेकिन इन्होंने समाज में समानता और सहिष्णुता की चेतना पैदा की।

(घ) सीमाएँ

  • संचार और यातायात के साधन सीमित होने के कारण ये आंदोलन स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहे।
  • राष्ट्रीय चेतना का अभाव था; उद्देश्य आमतौर पर सामंती शोषण या धार्मिक सुधार तक ही सीमित रहते थे।

2. अंग्रेजों के आगमन के बाद आंदोलनों का स्वरूप

1757 के प्लासी युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारत में औपचारिक राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करना शुरू किया। इसके बाद आंदोलनों के स्वरूप में मौलिक परिवर्तन हुआ।

(क) औपनिवेशिक शोषण और आर्थिक बदलाव

  • भू-राजस्व नीतियाँ: स्थायी बंदोबस्त (बंगाल), रैयतवाड़ी (मद्रास) और महालवाड़ी (उत्तर भारत) जैसे प्रयोगों ने किसानों पर करों का भारी बोझ डाला।
  • कारीगरों और उद्योगों का पतन: अंग्रेजी मशीन-निर्मित वस्तुओं ने भारतीय हस्तशिल्प को नष्ट कर दिया।
  • व्यापारिक एकाधिकार: ईस्ट इंडिया कंपनी ने कच्चे माल और बाजार पर नियंत्रण कर लिया।

इन नीतियों के कारण व्यापक असंतोष पैदा हुआ, जिसने नए प्रकार के विद्रोहों को जन्म दिया।

(ख) आरंभिक औपनिवेशिक काल के विद्रोह

  • संन्यासी-फकीर विद्रोह (1760–1800): बंगाल में भू-राजस्व और व्यापारिक नियंत्रण के खिलाफ संन्यासियों और फकीरों ने हथियार उठाए।
  • पाइक विद्रोह (1817, उड़ीसा): स्थानीय जमींदारों और किसानों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया।
  • वेल्लोर विद्रोह (1806): अंग्रेजी सैन्य नीतियों के खिलाफ भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह किया।

(ग) 1857 का विद्रोह: प्रथम व्यापक प्रतिरोध

  • यह विद्रोह सिपाहियों से शुरू हुआ लेकिन जल्दी ही किसानों, जमींदारों और नवाबों तक फैल गया।
  • इसमें पहली बार विभिन्न वर्गों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला।
  • भले ही यह विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की नींव रखी।

(घ) आधुनिक शिक्षा और राष्ट्रीय चेतना

  • अंग्रेजी शिक्षा और प्रेस के कारण नया शिक्षित मध्यम वर्ग तैयार हुआ (भद्रलोक, चितपावन ब्राह्मण आदि)।
  • लोकतंत्र, स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद जैसे विचारों ने भारतीय समाज को नए दृष्टिकोण दिए।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885): संवैधानिक सुधारों के लिए संगठित प्लेटफ़ॉर्म बना।

(ङ) सामाजिक और धार्मिक सुधार

  • राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज: सती प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ।
  • स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज: वेदों की ओर लौटने और शिक्षा पर जोर।
  • ये आंदोलन औपनिवेशिक आलोचना और पश्चिमी प्रभाव की प्रतिक्रिया थे, जिन्होंने समाज को आधुनिक बनाया।

(च) राष्ट्रीय आंदोलन का उदय

  • गांधी के नेतृत्व में असहयोग (1920), सविनय अवज्ञा (1930), भारत छोड़ो (1942) जैसे जन-आधारित आंदोलनों ने स्वतंत्रता संग्राम को नई ऊँचाई दी।
  • नमक सत्याग्रह, चंपारण सत्याग्रह और किसान आंदोलनों ने ग्रामीण समाज को भी स्वतंत्रता संग्राम में शामिल किया।

(छ) नए कारक

  • रेलवे, टेलीग्राफ और प्रिंटिंग प्रेस ने देशव्यापी संगठन संभव बनाया।
  • वैश्विक प्रभाव: रूसी क्रांति, आयरिश स्वतंत्रता संग्राम और एशियाई राष्ट्रवाद से प्रेरणा।

3. पहले और बाद के आंदोलनों में अंतर (तालिका)

पहलू अंग्रेजों से पहले अंग्रेजों के बाद
प्रकृति स्थानीय, सामंती, धार्मिक राष्ट्रीय, संगठित, वैचारिक
उद्देश्य करों/शोषण के खिलाफ, स्वायत्तता स्वराज, औपनिवेशिक शासन का अंत
नेतृत्व जमींदार, धार्मिक नेता, स्थानीय शासक शिक्षित मध्यम वर्ग, गांधी जैसे नेता
संगठन विखंडित, असंगठित संगठित (कांग्रेस, प्रेस, सभाएँ)
प्रभाव सीमित, क्षेत्रीय राष्ट्रव्यापी, वैश्विक प्रभाव

4. क्या अंग्रेजों ने ही आंदोलन पैदा किए? विश्लेषण

(क) हाँ, कुछ हद तक

  • अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीतियों (नमक कर, भूमि कर, नस्लीय भेदभाव) ने नए असंतोष को जन्म दिया।
  • अंग्रेजी शिक्षा और प्रेस ने राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा दिया।
  • 1857 का विद्रोह और उसके बाद के दमन ने “विदेशी शासन” की अवधारणा को स्पष्ट किया।

(ख) नहीं, पूरी तरह नहीं

  • भारत में विद्रोह और आंदोलन अंग्रेजों से पहले भी मौजूद थे।
  • भक्ति और सूफी आंदोलनों ने सामाजिक सुधार की नींव रखी थी।
  • अंग्रेजों ने मौजूदा असंतोष को केवल नया रूप और दिशा दी।

5. UPSC व अकादमिक दृष्टिकोण से महत्त्व

  • यह विषय GS Paper-1 (Modern Indian History) में प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है।
  • समाज सुधार, औपनिवेशिक नीतियों के प्रभाव और राष्ट्रवाद के विकास के प्रश्न अक्सर पूछे जाते हैं।
  • छात्र “Continuity through Change” के दृष्टिकोण से उत्तर लिख सकते हैं, जिससे उत्तर विश्लेषणात्मक बनता है।

6. निष्कर्ष: निरंतरता के माध्यम से परिवर्तन (Continuity through Change)

अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में आंदोलन निश्चित रूप से होते थे, लेकिन वे स्थानीय, विखंडित और मुख्य रूप से सामंती या धार्मिक प्रकृति के थे। अंग्रेजों के आने के बाद औपनिवेशिक शोषण, आधुनिक शिक्षा और तकनीकी प्रगति ने आंदोलनों को राष्ट्रीय, संगठित और वैचारिक बनाया।

इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि अंग्रेजों ने आंदोलन पैदा किए; बल्कि उनके शासन ने असंतोष को एक नए, राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रित किया। यही कारण है कि 20वीं सदी तक आते-आते स्वतंत्रता संग्राम एक अखिल भारतीय आंदोलन बन गया। यह परिवर्तन भारतीय इतिहास में “निरंतरता के माध्यम से परिवर्तन” का जीवंत उदाहरण है, जहाँ पुराने असंतोष (करों, शोषण के खिलाफ) नए रूप (नमक सत्याग्रह, असहयोग) में सामने आए।



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