दैनिक समसामयिकी लेख संकलन व विश्लेषण: 3 मई 2025
- 1-संपादकीय: भारत में प्रेस स्वतंत्रता — आँकड़ों की चकाचौंध में छिपी सच्चाई
- 2-शीर्षक: यूक्रेन युद्ध: मास्को की नज़र से एक अनकही कहानी
- 3-संपादकीय | स्थिरता की जीत: ऑस्ट्रेलिया में लेबर पार्टी की शानदार वापसी
- 4-शीर्षक: दिल्ली विश्वविद्यालय में विचारों का दमन? कश्मीर, इस्राइल-फिलिस्तीन और डेटिंग ऐप्स पर क्यों लगी रोक?
- 5-शीर्षक: न्यायपालिका का संकट: जजों की कमी से थमता न्याय का पहिया
1-संपादकीय: भारत में प्रेस स्वतंत्रता — आँकड़ों की चकाचौंध में छिपी सच्चाई
2025 के प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत ने 180 देशों में 151वाँ स्थान हासिल किया है। यह पिछले कुछ वर्षों (2023 में 161वाँ और 2024 में 159वाँ) की तुलना में थोड़ा बेहतर लग सकता है, लेकिन Reporters Without Borders (RSF) की नजर में भारत अब भी "बहुत गंभीर" श्रेणी में है। इसका मतलब साफ है—भारत का चौथा स्तंभ, यानी पत्रकारिता, आज भारी दबाव और असुरक्षा के साये में साँस ले रहा है। आइए, इस तस्वीर को और करीब से देखें कि आँकड़ों के पीछे की असल कहानी क्या है।
आँकड़े और हकीकत का फासला
भारत में प्रेस की आजादी कई चुनौतियों से जूझ रही है। सबसे बड़ी समस्या है मीडिया पर कुछ खास लोगों का कब्जा। बड़े-बड़े समाचार चैनल और अखबार अब उन कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में हैं, जो सत्ताधारी दलों के करीबी हैं। नतीजा? खबरें अब निष्पक्ष कम, पक्षपातपूर्ण ज्यादा नजर आती हैं। सच्चाई को तोड़-मरोड़कर परोसा जाता है, और जो पत्रकार सच दिखाने की हिम्मत करते हैं, उन्हें चुप कराने की कोशिश की जाती है।
इसके अलावा, यूएपीए जैसे सख्त कानूनों का गलत इस्तेमाल पत्रकारों को डराने का हथियार बन गया है। खोजी पत्रकार, स्वतंत्र लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता अक्सर झूठे मुकदमों और गिरफ्तारियों का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है—जब पत्रकार ही डर के साये में काम करेंगे, तो सच कौन बोलेगा?
पत्रकारिता: स्वतंत्रता कम, खतरा ज्यादा
पत्रकारों के लिए भारत में काम करना किसी जोखिम भरे सफर से कम नहीं। जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पूर्वी राज्यों और ग्रामीण इलाकों में पत्रकारों को धमकियाँ, शारीरिक हमले और फर्जी केसों का सामना करना पड़ता है। कई बार तो उन्हें अपनी जान तक गँवानी पड़ती है। दुखद बात यह है कि इन मामलों में इंसाफ की उम्मीद न के बराबर रहती है।
डिजिटल दुनिया, जो कभी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतीक थी, वह भी अब पूरी तरह सुरक्षित नहीं। इंटरनेट बंद करना, सरकारी निगरानी और साइबर मुकदमों ने ऑनलाइन पत्रकारिता को भी जकड़ लिया है। पेगासस जैसे जासूसी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल तो इस बात का सबूत है कि सरकारें पत्रकारों की हर गतिविधि पर नजर रख रही हैं।
क्या है समाधान?
प्रेस की आजादी को सिर्फ रैंकिंग में सुधार से नहीं मापा जा सकता। इसके लिए ठोस और बड़े बदलाव चाहिए। जैसे:
मीडिया स्वामित्व में पारदर्शिता: यह जानना जरूरी है कि किसके हाथों में है हमारे न्यूज़ चैनल्स और अखबारों की कमान। इसके लिए सख्त कानून बनाए जाएँ।
स्वतंत्र मीडिया नियामक: एक ऐसा आयोग हो, जो मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा करे और उस पर नाजायज दबाव को रोके।
सूचना स्रोतों की सुरक्षा: पत्रकारों और उनके स्रोतों को डर के बिना काम करने की गारंटी मिलनी चाहिए। व्हिसल-ब्लोअर संरक्षण कानून को और मजबूत करना होगा।
न्यायपालिका की सख्ती: कठोर कानूनों का दुरुपयोग रोकने के लिए अदालतों को सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
जब तक पत्रकार बिना डर के सवाल नहीं उठा सकते, तब तक भारत का लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा। प्रेस सिर्फ खबरें नहीं देती, वह समाज का आइना होती है। अगर यह आइना धुंधला हो गया, तो हमारी लोकतांत्रिक तस्वीर भी साफ नहीं दिखेगी।
निष्कर्ष: सावधानी के साथ आशा
151वाँ स्थान भारत के लिए एक छोटी-सी राहत की खबर हो सकती है, लेकिन यह खुश होने का वक्त नहीं। असली बदलाव तब आएगा, जब नीतियाँ बदलेगी, संस्थाएँ मजबूत होंगी और सरकारें प्रेस की आजादी को दिल से स्वीकार करेंगी। प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही नहीं, उसकी धड़कन है। अगर यह धड़कन कमजोर पड़ी, तो लोकतंत्र का स्वास्थ्य भी खतरे में पड़ जाएगा।
स्रोत:
Reporters Without Borders (RSF) 2025 Report: RSF.org
The Hindu Analysis: The Hindu Archive
Scroll.in Report: India ranked 151 in World Press Freedom Index 2025
Outlook India: India termed "one of the most dangerous" for journalists
2-शीर्षक: यूक्रेन युद्ध: मास्को की नज़र से एक अनकही कहानी
भूमिका: मास्को की गलियों में गूँजती भावनाएँ
यूक्रेन: एक भावनात्मक और ऐतिहासिक रिश्ता
नाटो का विस्तार: रूस के मन में डर और गुस्सा
इसलिए, यूक्रेन में चल रहा युद्ध उनके लिए सिर्फ़ ज़मीन का मसला नहीं है। यह रूस की सुरक्षा, उसकी स्वायत्तता और वैश्विक मंच पर उसकी साख की लड़ाई है। जहाँ पश्चिम इसे ‘आक्रमण’ कहता है, वहीं मास्को की गलियों में इसे ‘ज़रूरी आत्मरक्षा’ का नाम दिया जाता है।
ट्रम्प की बातें और अमेरिका का दोहरा चेहरा
ज़िंदगी की जद्दोजहद और युद्ध का बोझ
निष्कर्ष: एक युद्ध, दो नज़रिए
मुख्य स्रोत:
- Kallol Bhattacherjee, The Hindu (Report from Moscow)
- The Hindu Archives (Foreign Affairs / Russia-Ukraine Conflict)
- Russia’s official narrative on Ukraine conflict (as reflected in Russian media and policy statements)
- Secondary analysis from think-tanks and journals on NATO-Russia relations post-1991
3-संपादकीय | स्थिरता की जीत: ऑस्ट्रेलिया में लेबर पार्टी की शानदार वापसी
ऑस्ट्रेलिया के मतदाताओं ने एक बार फिर लेबर पार्टी और उसके नेता, प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज के प्रति भरोसा जताया है। राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता ABC News Australia के शुरुआती रुझानों के अनुसार, लेबर पार्टी को 2025 के आम चुनावों में स्पष्ट बहुमत मिला है। यह जीत केवल एक राजनीतिक दल की सफलता नहीं, बल्कि एक ऐसे दृष्टिकोण की जीत है जो प्रगतिशीलता, सामाजिक समावेश और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देता है। ऐसे समय में जब विश्व भर में दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद और वैचारिक ध्रुवीकरण का शोर बढ़ रहा है, ऑस्ट्रेलियाई जनता ने विवेक, संतुलन और निरंतरता को चुना है।
पिछले कुछ वर्षों में, श्री अल्बनीज ने ऑस्ट्रेलिया को चुनौतीपूर्ण वैश्विक परिस्थितियों से उबारने में उल्लेखनीय नेतृत्व दिखाया। महामारी के बाद आर्थिक सुधार हो, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का विस्तार हो, या फिर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ ठोस कदम—उनकी सरकार ने हर मोर्चे पर संतुलित और दूरदर्शी नीतियाँ अपनाईं। विशेष रूप से उनकी जलवायु नीति ने ऑस्ट्रेलिया को वैश्विक मंच पर एक जिम्मेदार नेता के रूप में स्थापित किया। स्वच्छ ऊर्जा और उत्सर्जन में कमी के उनके वादों ने शहरी मतदाताओं, खासकर युवाओं, का दिल जीत लिया। यह कोई आश्चर्य नहीं कि युवा मतदाता, जो भविष्य की चिंता करते हैं, लेबर पार्टी के साथ मजबूती से खड़े दिखे।
यह जनादेश केवल सत्ता की वापसी नहीं है; यह एक विचारधारा की विजय है जो समाज को बाँटने के बजाय जोड़ने, और उग्रवाद के बजाय व्यावहारिक समाधानों में विश्वास रखती है। कंजरवेटिव गठबंधन ने प्रवासन, मुद्रास्फीति और आर्थिक अनिश्चितताओं जैसे मुद्दों को भुनाने की कोशिश की, लेकिन मतदाताओं ने साफ कर दिया कि वे डर और विभाजन की राजनीति के बजाय स्थिरता और एकजुटता को तरजीह देते हैं।
विदेश नीति में भी अल्बनीज सरकार ने सूझबूझ दिखाई है। इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया की रणनीति, खासकर भारत, जापान और अमेरिका के साथ क्वाड गठबंधन को मजबूत करने की उनकी प्रतिबद्धता, क्षेत्रीय स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई है। भारत के साथ बढ़ता सहयोग—चाहे वह शिक्षा, रक्षा, या महत्वपूर्ण खनिजों का व्यापार हो—दोनों देशों के लिए नए अवसरों का द्वार खोल रहा है। हाल की एक रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंध न केवल आर्थिक, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं।
हालाँकि, जीत के इस उत्साह के बीच चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। ऑस्ट्रेलिया में आवास की बढ़ती कीमतें, जीवन-यापन का बढ़ता खर्च और ग्रामीण-शहरी असमानताएँ सरकार के लिए गंभीर सवाल खड़े करती हैं। वैश्विक आर्थिक अस्थिरता और भू-राजनीतिक तनावों के बीच समावेशी और टिकाऊ विकास का रास्ता आसान नहीं होगा। फिर भी, ऑस्ट्रेलिया का लोकतंत्र इस जीत के साथ एक प्रेरणादायक संदेश देता है: जनता आज भी तथ्यों, विश्वास और भविष्योन्मुखी नीतियों के पक्ष में खड़ी हो सकती है।
श्रोत (Sources):
- ABC News Australia – “Labor Wins Majority in 2025 Elections” – 2 मई 2025
- The Hindu International Edition – अप्रैल 2025
- Australian Electoral Commission – Preliminary Vote Count Report – मई 2025
4-शीर्षक: दिल्ली विश्वविद्यालय में विचारों का दमन? कश्मीर, इस्राइल-फिलिस्तीन और डेटिंग ऐप्स पर क्यों लगी रोक?
प्रस्तावना: विचारों पर सेंसरशिप का साया
मुख्य बिंदु: क्या हुआ और क्यों?
हटाए गए विषय: एक झलक
दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक समिति ने बीए प्रोग्राम (सांस्कृतिक अध्ययन) और मनोविज्ञान पाठ्यक्रम से कई समसामयिक और संवेदनशील विषयों को हटा दिया है। इनमें शामिल हैं:
इस्राइल-फिलिस्तीन संघर्ष: वैश्विक भू-राजनीति का एक जटिल मुद्दा।
कश्मीर का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: भारत के इतिहास और वर्तमान का अहम हिस्सा।
अल्पसंख्यक तनाव और विविधता: सामाजिक समावेश की चुनौतियाँ।
समिति ने इन विषयों को “पश्चिमी विचारों” और “राजनीतिक रूप से संवेदनशील” करार देते हुए इन्हें महाभारत और भगवद् गीता जैसे पारंपरिक ग्रंथों से बदलने का प्रस्ताव रखा।
निर्णय के पीछे का तर्क
विरोध की लहर: छात्र और शिक्षक सड़कों पर
इस फैसले ने शिक्षकों, छात्रों, और बुद्धिजीवियों को आक्रोशित कर दिया है।
शिक्षक संगठनों ने इसे “शैक्षणिक स्वतंत्रता पर हमला” करार दिया। उनका कहना है कि विश्वविद्यालय का काम तथ्यों को प्रस्तुत करना और बहस को प्रोत्साहित करना है, न कि उन्हें दबाना।
छात्रों ने इसे “विचारों की हत्या” बताया और पूछा कि अगर विश्वविद्यालय ही जटिल सवालों से मुँह मोड़ेगा, तो वे आलोचनात्मक सोच कैसे विकसित करेंगे?
सोशल मीडिया पर #SaveDUSyllabus जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं, जहाँ युवा इस फैसले को राजनीति से प्रेरित बता रहे हैं।
उच्च शिक्षा का असली मकसद क्या है?
लंबे समय के खतरे
छात्रों पर प्रभाव: अगर पाठ्यक्रम से जटिल और विवादास्पद मुद्दों को हटाया जाएगा, तो छात्र केवल किताबी ज्ञान तक सीमित रह जाएँगे। वे समाज के गहरे सवालों को समझने और समाधान निकालने की क्षमता खो देंगे।
वैश्विक विश्वसनीयता: भारत की उच्च शिक्षा को वैश्विक स्तर पर सम्मान तब मिलता है, जब वह विविध और समावेशी दृष्टिकोण अपनाती है। इस तरह के फैसले भारत को वैश्विक शिक्षा के नक्शे में पीछे धकेल सकते हैं।
निष्कर्ष: विचारों की आजादी का रास्ता
श्रोत (Sources):
- 1. The Economic Times – "No place for Western ideas? DU committee axes topics on Israel-Palestine, Kashmir, and dating apps" (प्रकाशित: 3 मई 2025)
- 2. दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद की बैठक व पाठ्यक्रम समीक्षा रिपोर्ट (जैसा कि ET रिपोर्ट में उल्लिखित है)
- 3. संबंधित विषयों पर विशेषज्ञों और शिक्षकों की प्रतिक्रियाएँ (ET रिपोर्ट में उद्धृत)
नीचे इस मुद्दे से संबंधित संभावित UPSC प्रश्न दिए गए हैं, जो विभिन्न पेपर्स जैसे GS Paper 2, GS Paper 4, निबंध तथा साक्षात्कार के दृष्टिकोण से उपयोगी हो सकते हैं:
GS Paper 2 (Governance, Constitution, Polity, Social Justice)
1. "शैक्षणिक स्वतंत्रता और पाठ्यक्रम में समसामयिक विषयों को शामिल करना लोकतंत्र की नींव को मजबूत करता है।" दिल्ली विश्वविद्यालय में हालिया पाठ्यक्रम परिवर्तनों की पृष्ठभूमि में चर्चा करें।
(10 अंक, 150 शब्द)
2. "शिक्षा नीति में विचारों की विविधता को सीमित करना छात्रों की आलोचनात्मक सोच को प्रभावित कर सकता है।" – इस कथन का विश्लेषण करें।
(15 अंक, 250 शब्द)
GS Paper 4 (Ethics, Integrity and Aptitude)
3. शैक्षणिक स्वतंत्रता बनाम सांस्कृतिक संवेदनशीलता के बीच संतुलन बनाना – एक नैतिक दुविधा। उपयुक्त उदाहरण सहित विश्लेषण करें।
(10 अंक, 150 शब्द)
Essay Paper
4. "शिक्षा विचारों का विस्तार है, संकुचन नहीं – विश्वविद्यालयों का दायित्व और लोकतंत्र की रक्षा।"
इस विषय पर तार्किक एवं संतुलित निबंध लिखिए।
(1000–1200 शब्द)
Interview (Personality Test)
5. यदि आप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के सलाहकार सदस्य होते, तो आप दिल्ली विश्वविद्यालय के इस निर्णय पर क्या राय रखते और क्या सुझाव देते?
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5-शीर्षक: न्यायपालिका का संकट: जजों की कमी से थमता न्याय का पहिया
प्रस्तावना: न्याय की राह में रोड़ा
1. संकट का ताजा चेहरा
2. भारतीय न्यायपालिका की हकीकत
- राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, उच्च न्यायालयों में 30-40% जजों के पद खाली पड़े हैं।
- जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में 4 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं, जिनका बोझ हर साल बढ़ता जा रहा है।
- यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी जजों की नियुक्ति में देरी आम बात है, जिससे अपीलों का निपटारा धीमा हो जाता है।
3. न्याय में देरी: एक सामाजिक त्रासदी
कहावत है, “Justice delayed is justice denied”—न्याय में देरी, न्याय को नकारने के समान है।जजों की कमी के कारण छोटे-बड़े मामले सालों तक लटके रहते हैं, जिससे नागरिकों का व्यवस्था पर भरोसा टूटता है। कई बार निर्दोष लोग भी बिना फैसले के जेलों में सालों गुजार देते हैं।
4. संकट के पीछे क्या?
कोलेजियम प्रणाली की कमियाँ: जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और गति का अभाव। कई बार सरकार और कोलेजियम के बीच तनातनी से प्रक्रिया रुक जाती है।
केंद्र-राज्य समन्वय की कमी: नियुक्तियों के लिए जरूरी संसाधन और सहमति समय पर नहीं मिलती।
न्यायिक सेवा का आकर्षण कम: कम वेतन, भारी कार्यभार, और सीमित सुविधाओं के कारण युवा वकील न्यायिक सेवा को करियर के रूप में कम चुनते हैं।
5. समाधान: एक नई शुरुआत की जरूरत
इस संकट से निपटने के लिए ठोस और त्वरित कदम उठाने होंगे:
कोलेजियम प्रक्रिया में सुधार: नियुक्तियों के लिए समयबद्ध और पारदर्शी प्रक्रिया लागू हो।
वैकल्पिक मॉडल पर विचार: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) जैसे मॉडल को फिर से देखा जा सकता है, बशर्ते यह स्वतंत्रता को प्रभावित न करे।
अंतरिम जजों की नियुक्ति: रिक्तियों को भरने तक अस्थायी या सेवानिवृत्त जजों को नियुक्त किया जा सकता है।
जज-जनसंख्या अनुपात बढ़ाना: भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर सिर्फ 21 जज हैं, जबकि वैश्विक मानक 50-100 का है। इसे बढ़ाने की रणनीति जरूरी है।
प्रौद्योगिकी का उपयोग: ई-कोर्ट, वर्चुअल सुनवाई, और डिजिटल रिकॉर्ड-कीपिंग से कार्यक्षमता बढ़ सकती है।
न्यायिक सेवा को आकर्षक बनाना: बेहतर वेतन, सुविधाएँ, और प्रशिक्षण से युवाओं को इस क्षेत्र में लाया जा सकता है।
6. संवैधानिक नजरिया
निष्कर्ष: समय है बदलाव का
श्रोत (Sources):
- 1. दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी (2025): "Delhi HC blames acute shortage of judges for inability to hear all listed cases" स्रोत लिंक: https://newsth.live/3NwseZ
- 2. राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG):लंबित मामलों और न्यायाधीशों की संख्या संबंधी आँकड़े वेबसाइट: https://njdg.ecourts.gov.in/
- 3. सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में रिक्तियों की जानकारी:Law Ministry & Parliamentary Questions(उदाहरण: लोकसभा प्रश्न उत्तर, मार्च 2025)
- 4. "भारत में न्यायिक सुधार पर विधि आयोग की रिपोर्ट"विधि आयोग की 245वीं और 230वीं रिपोर्टें (Judicial Reforms and Pendency of Cases)
- 5. अनुच्छेद 21 - भारतीय संविधान:"जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार" - समयबद्ध न्याय की संवैधानिक व्याख्या
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