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Adi Shankaracharya: The Eternal Light of Indian Intellectual Tradition

 आदि शंकराचार्य: भारतीय चेतना के चिरस्थायी प्रकाश भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरती पर कुछ ही ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने समय की धारा को मोड़ा और युगों तक प्रेरणा दी। आदि शंकराचार्य उनमें से एक हैं – एक ऐसी ज्योति, जिसने 8वीं शताब्दी में भारतीय बौद्धिक और आध्यात्मिक जगत को नया जीवन दिया। केरल के छोटे से कालड़ी गाँव में जन्मे इस युवा सन्यासी ने न केवल वेदों के गूढ़ ज्ञान को सरल बनाया, बल्कि उसे घर-घर तक पहुँचाकर भारत को एक सूत्र में बाँध दिया। एक युग का संकट और शंकर का उदय उस समय भारत एक बौद्धिक और धार्मिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। अंधविश्वास, पंथों की भीड़ और बौद्ध धर्म के प्रभुत्व ने वैदिक परंपराओं को धूमिल कर दिया था। लोग सत्य की खोज में भटक रहे थे। ऐसे में शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत का झंडा उठाया और कहा – "सत्य एक है, बाकी सब माया है।" उनका यह संदेश सिर्फ दर्शन नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक नया तरीका था। "अहं ब्रह्मास्मि" – मैं ही ब्रह्म हूँ शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत सरल लेकिन गहरा है। वे कहते थे कि आत्मा और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं। हमारी आँखों के सामने ...

Birthright Citizenship: Changing Global Perspectives and Impacts

यह संपादकीय लेख "बर्थराइट सिटिजनशिप: बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य और प्रभाव" पर आधारित है। इसमें जन्म आधारित नागरिकता के ऐतिहासिक संदर्भ, विभिन्न देशों द्वारा इसे समाप्त करने की प्रवृत्ति, भारत में इस नीति के बदलाव, पक्ष-विपक्ष में तर्क, संभावित प्रभाव और भविष्य की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। लेख में यह विश्लेषण किया गया है कि कैसे बर्थराइट सिटिजनशिप मानवाधिकारों और समावेशन को बढ़ावा देती है, लेकिन साथ ही अवैध प्रवास और राष्ट्रीय संसाधनों पर दबाव डालने जैसे मुद्दे भी उत्पन्न कर सकती है। अंत में, यह निष्कर्ष निकाला गया है कि नागरिकता संबंधी नीतियों में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है ताकि राष्ट्रीय हित और मानवाधिकार दोनों सुरक्षित रह सकें।

"Birthright Citizenship"


बर्थराइट सिटिजनशिप: बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य और प्रभाव

भूमिका

बर्थराइट सिटिजनशिप (जन्मसिद्ध नागरिकता) वह नीति है जिसके तहत किसी व्यक्ति को उस देश की नागरिकता स्वतः प्राप्त हो जाती है, जहां उसका जन्म हुआ है। यह सिद्धांत वर्षों से कई देशों में लागू था, लेकिन हाल के दशकों में विभिन्न देशों ने इसे समाप्त कर दिया है। बढ़ते प्रवास, जनसंख्या दबाव और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों ने इस नीति पर पुनर्विचार करने के लिए सरकारों को बाध्य किया है।

आज, जब कई देश इस नीति को खत्म कर चुके हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम इस विषय पर गहराई से विचार करें। क्या बर्थराइट सिटिजनशिप वास्तव में अवैध प्रवास को बढ़ावा देती है, या यह मानवाधिकारों और समावेशन का एक महत्वपूर्ण आधार है? इस लेख में हम इसके ऐतिहासिक महत्व, वैश्विक परिदृश्य, प्रभाव और संभावित भविष्य का विश्लेषण करेंगे।

बर्थराइट सिटिजनशिप का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

बर्थराइट सिटिजनशिप का विचार प्राचीन काल से मौजूद रहा है। रोम साम्राज्य में, एक व्यक्ति को उसी समुदाय का नागरिक माना जाता था जहां वह जन्म लेता था। आधुनिक समय में, यह नीति मुख्य रूप से अमेरिका और कुछ अन्य देशों में विकसित हुई।

अमेरिका में, यह 14वें संविधान संशोधन (1868) के माध्यम से कानूनी रूप से लागू किया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य गुलामों के बच्चों को नागरिकता प्रदान करना था। हालांकि, 20वीं और 21वीं शताब्दी में बदलते वैश्विक और सामाजिक परिदृश्यों ने इस नीति की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाए हैं।

बदलता वैश्विक परिदृश्य

वर्तमान में, बर्थराइट सिटिजनशिप को समाप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कई विकसित देशों ने इसे खत्म कर दिया है, क्योंकि वे इसे अवैध प्रवास को बढ़ावा देने वाली नीति मानते हैं।

किन देशों ने इसे समाप्त किया?

पिछले कुछ दशकों में, कई देशों ने जन्म आधारित नागरिकता को समाप्त कर दिया है। इनमें शामिल हैं:

ऑस्ट्रेलिया (1986)

यूनाइटेड किंगडम (UK) (1983)

आयरलैंड (2004)

फ्रांस (1993)

भारत (1987 और 2004 के संशोधन)

न्यूजीलैंड (2006)

कई अफ्रीकी और यूरोपीय देश

इन देशों ने जन्म आधारित नागरिकता को समाप्त कर माता-पिता की नागरिकता पर आधारित प्रणाली अपनाई है।

भारत में बर्थराइट सिटिजनशिप का विकास

भारत ने भी इस नीति में बड़े बदलाव किए हैं। 1955 में लागू भारतीय नागरिकता अधिनियम के तहत, भारत में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति नागरिक माना जाता था। लेकिन 1987 और 2004 के संशोधनों ने इस नीति को सीमित कर दिया। अब माता-पिता में से कम से कम एक का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है।

इसका मुख्य कारण बांग्लादेश और अन्य पड़ोसी देशों से होने वाला अवैध प्रवास था, जिसने भारत की जनसांख्यिकीय स्थिति को प्रभावित किया।

बर्थराइट सिटिजनशिप के पक्ष और विपक्ष में तर्क

पक्ष में तर्क

1. मानवाधिकार और समावेशिता: यह नीति सभी को समान अवसर देती है, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलता है।

2. अस्पष्ट कानूनी स्थिति से बचाव: जन्म से नागरिकता देने से बच्चों को कानूनी पहचान की समस्या से नहीं जूझना पड़ता।

3. प्रवासी समुदायों का एकीकरण: यह नीति प्रवासी समुदायों को मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर देती है।

विपक्ष में तर्क

1. अवैध प्रवास को बढ़ावा: कई देशों का मानना है कि यह नीति अवैध प्रवास को प्रोत्साहित करती है।

2. राष्ट्रीय संसाधनों पर दबाव: इससे स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सेवाओं पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।

3. राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे: कुछ देश इसे सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी जोखिम भरा मानते हैं।

संभावित प्रभाव और भविष्य की दिशा

बर्थराइट सिटिजनशिप को समाप्त करने के कई प्रभाव हो सकते हैं:

1. प्रवासी नीति में सख्ती: इससे देशों की आव्रजन नीतियां और अधिक सख्त हो सकती हैं।

2. शरणार्थी और अवैध प्रवासियों के लिए संकट: जन्म के आधार पर नागरिकता नहीं मिलने से कई बच्चों की कानूनी स्थिति अनिश्चित हो सकती है।

3. नागरिकता की नई परिभाषा: भविष्य में नागरिकता माता-पिता, जन्मस्थान और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर तय की जा सकती है।

निष्कर्ष

बर्थराइट सिटिजनशिप का मुद्दा केवल कानूनी या प्रशासनिक नहीं, बल्कि एक गहरा सामाजिक और नैतिक विषय है। जहां एक ओर यह मानवाधिकारों और समावेशन का समर्थन करता है, वहीं दूसरी ओर यह अवैध प्रवास और संसाधनों पर बोझ को भी जन्म दे सकता है।

इसलिए, किसी भी देश को इस नीति में बदलाव करते समय अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का गंभीर विश्लेषण करना चाहिए। नागरिकता के नियमों को संतुलित और न्यायसंगत बनाने की दिशा में ठोस प्रयास किए जाने चाहिए, ताकि राष्ट्रीय हितों की रक्षा हो सके और मानवाधिकार भी सुरक्षित रहें।


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✍️ARVIND SINGH PK REWA

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